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________________ 162 में उसमें साधु के गुण तो थे नहीं। उस समय उस साधु वेशधारी को वन्दना, उसकी भक्ति आदि की, उसका आदर सत्कार किया तब आप आराधक हुए कि विराधक ? यदि आप कहें कि अराधक हैं तो ऐसा संभव नहीं । क्योंकि उसकी आत्मा में साधु के गुण तो नहीं और आपका सिद्धान्त है कि गुणों की विद्यमानता वाले को ही साधु मानना उसका ही भक्ति सत्कार करना । अथवा विराधक बनते हैं । यदि विराधक हैं तो आप पाप के भागी बने । क्योंकि उसमें भाव निक्षेप तो है ही नहीं। (इ) मिथ्यादृष्टि, दूरभवी अथवा अभवी जो निश्चय ही पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती हैं अथवा जो साधु के आचार से पतित सारे जीवन साधु वेश में रहते हैं । उन्हें भी आप साधु मानकर ही वन्दना, नमस्कार करते हैं और आहार-पानी, उपकरण आदि सामग्री देकर अपनी भक्ति का प्रदर्शन करते हैं । तो स्पष्ट है कि जिसकी आत्मा में साधु के गुणों की गंध भी नहीं है; उसके हाड-चाम आदि सप्तधातु से तथा गंदगी से भरे जड़ शरीर के पूतले में तथा साधु के जड़ वेश में साधुपद की कल्पना कर उसका सत्कार करते हैं। ऐसे व्यक्ति की भक्ति करके आपने घोर पाप कर्म का बन्ध किया। भाव से पतित साधु अपनी कुत्सित भावना से किसी को बहु बेटियों की इज्जत पर भी कुदृष्टि कर सकता है ऐसा व्यक्ति धर्म-समाज के माथे पर कलंक का टीका है और मृत्यु के बाद भी दुर्गति का पात्र है। सारांश यह है कि जो भाव से साधु नहीं मात्र साधु वेशधारी है उसे जो वन्दना आदि की, उसका आदर सत्कार किया सो क्या समझ कर किया? क्या मान कर किया? भाव से साधु मान कर किया तो उसमें साधु के गुणों का अभाव होने से उसमें भाव निक्षेप न होने से पाप के भागी बने मात्र इतना ही नहीं किन्तु साथ ही उन्मार्ग सेवन का समर्थन कर धर्म, समाज, देश के लिये अनर्थकारी बने । क्योंकि आप की मान्यता है कि गुणों की विद्यमानता होगी तभी नमस्कार आदर सत्कार आदि करेंगे । वरना नहीं । इसी कारण से गोशाला और जमाली में भाव से साधु गुणों का अभाव होने से प्रभु महावीर के पास आने वाले साधुओं ने उन्हें वन्दन नहीं किया था। 2. वेश से साधु नहीं भाव से साधु है - (अ) कोई व्यक्ति साधु का वेश नहीं लेता, द्रव्य से साधु की दीक्षा ग्रहण नहीं करता, भाव से उसकी आत्मा में साधु के सर्वगुण विद्यमान हैं । भाव से साधु होने पर भी उसको साधु के वेश का अभाव है। जैसे भरत चक्रवर्ती, मरुदेवी माता आदि ने गृहस्थ के वेश में हो भाव मुनि अवस्था प्राप्त कर तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान की प्राप्ति की। (आ) भाव से साधु के गुणों को विद्यमान रखते हुए किसी विशेष लाभ की दृष्टि से अथवा विद्याभ्यास आदि के लिए विशेष परिस्थितियों के कारण मुनि वेश को छोड़कर अन्य लिगियों के वेश को स्वीकार करके अथवा गृहस्थ वेश में रहने पर क्या आप उसको साधु मानकर वन्दना नमस्कार करेंगे ? श्री हरिभद्र सूरि के शिष्य हंस तथा विहंस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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