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________________ 154 है किसी का यथेच्छ नाम रख लेना-सो नाम निक्षेप है। अथवा जिस किसी जड़ अथवा चेतन वस्तु का नाम पहचान के लिए रख लिया जाता है-वह नाम निक्षेप है। नाम के अनुसार चाहे उसमें गुण हों अथवा न हों, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। धनपाल नाम होते हुए भी उसके पास चाहे कोड़ी भी न हो, चाहे करोड़पति हो, उसे धनपाल के नाम से ही पुकारा जावेगा। किसी का नाम नरसिंह है जिसका अर्थ होता है पुरुषों में सिंह के समान शूरवीर; चाहे उसमें अतुल शक्ति पराक्रम हो अथवा मक्खी को उड़ाने की भी शक्ति न हो, चाहे वह चूहे को भी देखकर डर जाता हो तो भी हम उसे नरसिंह ही कहेंगे । तीर्थंकर नाम होते हुए भी चाहे वह सर्वथा अल्पज्ञ हो अथवा सर्वगुण संपन्न तीर्थकर हो हम उसके रखे गए नाम के अनुसार ही पुकारेंगे । अथवा गुण दोष की अपेक्षा बिना किसी का नाम साधु रख देना इत्यादि । कहने का आशय यह है कि इस निक्षेप में गुण दोष की अपेक्षा नहीं रहती। 2. स्थापना निक्षेप(1) श्री तीर्थकर प्रभु की अविद्यमानता में साकार अथवा निराकार पदार्थ में 'वह यही है' इस प्रकार अवधान करके स्थापना करना, उसे स्थापना निक्षेप कहते है। जैसे श्री पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा को श्री पार्श्वनाथ मानना । भेदभाव रहित रूप में (स्थापना जो निमित्त मात्र है उसे) निमित्त कारण में कर्तापन का आरोप करके उसका ध्यान करने से ध्येय (स्व-स्वरूप) की प्राप्ति होती है। कहा भी है कि __ "तस विरह तस थापना अभिन्न श्रद्धाधार, कारण कर्तारोप थी नंगमनय अनुसार" (सहजानन्द)। कर्ता की कृपा के आरोप बिना न तो भक्तिभाव उल्लसित होता है और न देह आदि पदार्थों पर से ममत्व कम होता है। इसलिए ईश्वर कृपा को मानकर सिद्धांतकारों ने भक्ति मार्ग का उपदेश दिया है। यह आत्म-साक्षात्कार का सुखद तथा सुगम उपाय है । नैगम नय के अनुसार भी स्थापना निक्षेप पूज्य है (2) जो वस्तु असली वस्तु की प्रतिकृति, मूर्ति या चित्र है अथवा जिसमें असली वस्तु का आरोप किया गया हो उसे स्थापना निक्षेप कहते हैं। (3) अथवा किसी अनुपस्थित वस्तु का किसी दूसरी उपस्थित वस्तु में सम्बन्ध या मनोभावना को जोड़कर आरोप कर देना कि "यह वही है"। सो ऐसी भावना को स्थापना कहा जाता है । जहां ऐसा आरोप होता है वहां जीवों की ऐसी मनोभावना होने लगती है कि "यह वही है"। जैसे भव्य आत्मा अथवा अभव्य आत्मा में साधु के महाव्रतों के अभाव में साधु वेषधारी को साधु कहना अथवा मान लेना । अथवा सोतेली माता को अपनी माता मान लेना । दत्तक पुत्र को अपना पुत्र मान लेना। स्थापना दो प्रकार की होती है-(1) यावत्कथित, (2) इत्वरिका। (1) यावत्कथित स्थापना-जिस वस्तु की स्थापना की गई हो जब तक वह वस्तु रहे तब तक उस वस्तु में स्थापना कायम रहे । उसे यावत्कथित स्थापना कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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