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________________ 115 'भावना खराब (प्रमादवाली) हो तभी उसमें होने वाला प्राणवध दोष रूप है और यदि भावना वैसी न हो तो ऐसा प्राणवध भी दोष रूप नहीं है। कहा भी है कि "शरीरी-म्रियतां मा वा, ध्रुवं हिंसा प्रमादिनः। ___सा प्राणव्यपरोऽपि प्रमाद रहितस्य न॥1॥" ___ अर्थात्-प्राणी मृत्यु पावे अथवा न पावे पर परमादी को निश्चय ही हिंसा होती है और यदि प्राणी का नाश कदाचित हो भी जावे तो प्रमाद रहित को हिंसा नहीं लगती। इसलिये ईर्यासमिति वाले मुनि के आने-जाने, हलन-चलन, गमनागमन आकुंचन प्रसारण, उठने बैठने आदि से यदि कोई जीव दबकर मर भी जावे तो वहां उस मुनि को उस जीव की मृत्यु के निमित्त ज़रा भी बन्ध नहीं होता । क्योंकि उसके भाव में प्रमाद योग नहीं है। प्रश्न-चाहे जीव मरे या न मरे तो भी प्रमाद के योग से (अयत्नाचार से) हिंसा होती है तो फिर यहां सूत्र में 'प्राणव्यपरोपणं' इस शब्द का किस लिये प्रयोग किया है। उत्तर-प्रमाद योग से जीव के अपने भावप्राणों का आघात (मरण) अवश्य होता है। प्रमाद में प्रवर्तने से प्रथम तो जीव अपने ही शुद्ध भाव-प्राणों का वियोग करता है। फिर वहाँ अन्य जीव के प्राणों का वियोग (व्यपरोपण) हो या न हो, तथापि अपने भाव-प्राणों का वियोग तो अवश्य होता है। यह बतलाने के लिए 'प्राणव्यपरोपण' शब्द का प्रयोग किया है। जिस व्यक्ति के क्रोधादि कषाय प्रकट होता है उसके अपने शुद्धोपयोग रूप भाव-प्राणों का घात होता है । कषाय के प्रगट होने से जीव के भाव-प्राणों का तो 'व्यपरोपण' होता है सो भावहिंसा है और इस हिंसा के समय यदि प्रस्तुत जीव के प्राण का वियोग हो तो वह द्रव्यहिंसा है । कहा भी है कि: "अशुद्धोपयोगोऽन्तरङ्गच्छेदः, परप्राणव्यपरोपो बहिरङ्गः। तत्र परप्राणव्यपरोप सद्भावे तदसद्भावे वा तदविनाभावे प्रमताचारेण प्रसिध्यद शुद्धोपयोग सदभावस्य सुनिश्चित हिंसाभावप्रसिद्धेः तथा तद्विनाभाविना प्रमताचारेण प्रसिध्यद शुद्धोपयोगासद्भावपरस्य परप्राणव्यपरोपसद्भावेऽपि बन्धाप्रसिद्धया सुनिश्चित हिंसाऽभाव-प्रसिद्धेश्चान्तरङ्ग एव छेदो बलीयान् न पुनर्वहिरङ्गः । एवमप्यन्तरंगछेदायतनमात्रत्वाद् बहिरङ्गच्छेदोऽभ्युपगम्येतव (प्रवचनसार वृत्ती) यदि कोई जीव दूसरे को मारना चाहता हो परन्तु ऐसा प्रसंग न मिलने पर नहीं मार सका, तो भी उस जीव की हिंसा का पाप लगा । क्योंकि यह जीव प्रमादभाव सहित है और प्रमादभाव ही भावप्राणों की हिंसा है। यहाँ योग का अर्थ संबंध होता है । 'प्रमत्तयोगात्' का अर्थ है प्रमाद के संबंध से होने वाला प्राणवध हिसा है । ___ "मज्ज-विसय-कसाया-निहा-विकहा य पंचमी भणिया" प्रमाद के 15 भेद हैं-4 विकथा (स्त्री कथा, देश कथा, राज कथा, भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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