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________________ 114 "प्रमत्त-योगात् प्राण-व्यपरोपणं हिंसा ।" के भावप्राण अर्थ - प्रमत्तयोग से होने वाला जो प्राण वध-वह हिंसा है। इस सूत्र में रागद्वेषयुक्त किंवा अयत्नाचार (असावधानी - प्रमाद) के सम्बन्ध से अथवा प्रमादी जीव के मन, वचन, काया योग से 'प्राणव्यपरोपणं' जीव का, द्रव्यप्राण का अथवा इन दोनों का वियोग करना हिंसा कहा है। इस सूत्र में प्रमत्तयोगात् शब्द भाववाचक है । वह यह बतलाता है कि प्राणों के वियोग से होने वाली हिंसा मात्र से बंध नहीं परन्तु प्रमाद भावहिंसा है और उससे पाप का बंध है। शास्त्रों में कहा है कि" न च सत्वपि व्यपरोपणेऽर्हदुक्तेन यत्नेन परिहन्त्याः प्रमादाभावे हिंसा भवति । प्रमादो हि हिंसा नाम । अन्यथा पिण्डोपधि-शय्यासु स्थान- शयन गमना ऽऽकुंचन-प्रसारण ssमर्शनादिषु च शरीरं क्षेत्रं लोकं च परिभुंजादो ।' "जले जन्तुः स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च । जन्तुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिसकः ॥ " ( तत्त्वार्थ राजवार्तिके) हिसकत्वेऽपि र्हदुक्तयत्नयोगे न बन्धः । तद्विरहे एव बन्धः । तथाच पठन्ति --" जियउ व मरउ व जीवो अजयाचारस्स निच्छओ बंधो । पययस्स नत्थि बंधो हिंसा मित्तेण दोसेण ॥ अजयं चरमाणस्स पाणभूयाणि हिंसओ । बझ पाए कम्मे से होति कडुगे फले ॥ जयं तु चरमाणस्स दयाविक्खिस्स भिक्खुणो । नवे न बज्झए कम्मे पोराणे य विधूयए ॥ Jain Education International - भावार्थ - श्री अरिहंत भगवन्तों के फरमाये हुए प्रमादाभाव यत्नपूर्वक आचरण से होने वाले प्राणवध की हिंसा नहीं है । कारण यह है कि प्रमाद ही हिंसा है । यदि प्रणव मात्र को हिंसा मानेंगे तो ईर्यासमिति वाले मुनि जब आहार, पानी, उपकरण, या आदि के लिये जाना आना हलन चलन, आकुंचन-प्रसारण, अनुमति आदि कार्यों शरीर क्षेत्र भी लोकादि में कार्यकलाप करते हैं तो जल में, स्थल में, आकाश में यहां तक कि सर्वत्र लोक अनंत्तानन्त सूक्ष्म जीवों से भरा है, ऐसे जगत में साधु अहिंसक कैसे ? प्राणीवध हो जाने पर भी श्री अरिहंत भगवन्तों की बतलायी हुई जयना (यत्ना, सावPart) के योगपूर्वक आचरण करने से पाप का बन्ध नहीं होता । अयतनाचार ( प्रमादाचरण) से ही बंध है । कहा भी है कि - जीव मृत्यु पावे अथवा न पावे पर अयतनाचारी (प्रमादी) को अवश्य ( हिंसा का दोष लगता है जिससे) पाप का बंध होता है । प्राणवध मात्र के दोष से अप्रमादि को बन्ध नहीं होता । अथतनापूर्वक आचरण करने से प्राणियों के प्राणवध का भिक्षु भागी बनता है और पाप कर्म का बन्ध करता है । जिसका उसे दुःख विपाक भोगना पड़ता है। तथा यतनापूर्वक आचरण करने वाला दयावान भिक्षु (मुनि) नये कर्मों का बन्ध नहीं करता और पुराने कर्मों को नाश कर देता है । कहने का सारांश यह है कि हिंसा की सदोषता भावना पर अवलम्बित है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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