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________________ 91 'प्रभु के मस्तक पर हाथी पर बैठे हुए और हाथों में कलसे लेकर देवों के आकार बने होते हैं। यानो देवता प्रभु का जन्माभिषेक करा रहे हैं। इन आकारों को ध्यान में रखकर जन्मावस्था की भावना करें। तथा स्नानादि से जलाभिषेक पूजा करते समय भी जन्मावस्था की भावना करें। 2. राज्यावस्था-इसी परिकर में हाथों में पुष्पों की माला धारण किये देव बने होते हैं . इसे ध्यान में लेकर राज्यावस्था को भावना करना। पुष्पमाला तथा आभूषणादि ये राजभूषण हैं। पुष्प पूजा तथा अलंकार पूजा करते समय भी राज्यावस्था की भावना करें। उस समय राज्यावस्था को लक्ष्य में लेते हुए दीक्षा लेकर चक्रवर्ती अथवा मांडलिक राज ऋद्धि सर्व परिग्रह के त्याग की भावना करना । यानी तीर्थंकर कोई साधारण समद्धि वाले नहीं थे वे अपरिमित भोगोपभोग रूप राज्यलक्ष्मी का त्याग कर परिग्रह त्याग के एक महानादर्श को स्वीकार कर आत्मकल्याण के पथगामी बने हैं । ऐसी भावना करना । 3. श्रमणावस्था-प्रभ प्रतिमा का मस्तक तथा दाढ़ी मछ का भाग केशरहित है । इसको ध्यान में रखते हुए श्रमणावस्था की भावना करें। प्रभु जब दीक्षा लेते है तब पंचमुष्टि लोच करते हैं। तदुपरान्त भवपर्यन्त दीक्षा लेते समय लोच करने से जैसे होते हैं वैसे ही रहते हैं, बाद में उनके नख और केश बढ़ते नहीं हैं। यही केश लुचित अवस्था प्रम की श्रमणावस्था का बोध कराती है। ___4. केवलो अवस्था-इसी परिकर में कलशधारी देवताओं के दोनों तरफ अंकित. पत्रों (पत्तों) के आकार होते है। 1-यह अशोक वृक्ष, 2-मालाधारी देवों द्वारा पुष्पवृष्टि, 3-वोणा और बाँसुरी बजाते हुए देवों के आकारों द्वारा दिव्यध्वनि, 4-मस्तक के पिछले भाग में रहा हुआ तेज की राशी को सूचित करनेवाला किरणों वाला कांतिमान गोलाकार भामंडल, 5-प्रभु के मस्तक पर निर्मित तीन छत्र, 6-इन छत्रों के ऊपर भेरी बजाते हुए देवों के आकार देवदुंदुभि, 7-प्रभु के अगलबगल दो चंवर डोलानेवाले देवों के आकार, 8-तथा सिंहासन जिस पर प्रतिमा विराजमान रहती है। ऐसे ये आठ प्रातिहार्य अवश्य परिकर में होते हैं। ये केवलज्ञान से निर्वाण पर्यन्त सदा प्रभु के होते हैं। इन्हें देखकर तीर्थंकर पद की भावना करना। 5. रूपातीतावस्था-सब तीर्थंकर पर्यकासन (पद्मासन) अथवा खड़े कायोत्सर्ग मुद्रा में रहते हुए निर्वाण प्राप्त करते हैं। मोक्ष पाते हैं : इसी लिए तीर्थंकरभगवन्तों की प्रतिमाएं प्रायः इन दोनों मुद्राओं वाली होती हैं । इसको लक्ष्य में रखकर प्रभु की सिद्धावस्था अर्थात् रूपातीत अवस्था की भावना करें। सारांश यह है कि-श्री जिनप्रतिमा को साक्षात तीर्थकर परमात्मा के समान मानकर उनके पांचों कल्याणकों, तीन अवस्थाओं, पांच पदों की भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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