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________________ 90 और संक्षिप्त रूप से पंचोपचारी, अष्टप्रकारी पूजा पद्धति में पांचों कल्याणकों की 'पूजा का समावेश है। पंचोपचारी पूजा में पुष्प, अक्षत, गंध, धूप, दीपक ये पांच द्रव्य काम में लिये 'जाते हैं। यहाँ अंग पुजा में मात्र पुष्प पूजा कही है मिट्टी, बालू, काष्ठ, हाथीदांत से बनी मूर्तियाँ तथा कागज, वस्त्र आदि से बवे चित्रों की पूजा में स्नान-विलेपन नहीं करना चाहिये क्योंकि गीले हो जाने से ये खराब अथवा समाप्त हो जाते हैं। इसलिए यहां पुष्पों से ही अंग पूजा कही है । बाकी के चार द्रव्य अग्र पूजा में लिए जाते हैं। ___अष्टोपचारी (अष्टप्रकारी) पूजा-पाषाण, धातुआदि प्रतिमाओं की की जाती है। जल, चन्दन (विलेपन तिलकादि) पुष्प (छुटे फूल तथा पुष्पमाला) इन तीनों • द्रव्यों से अंग पूजा । धूप, दीप अक्षत, नेवद्य, फल (आरती, मंगलदीपक) इन पांचों -से अग्र पूजा की जाती है। (9)--पूजापद्धति में तीर्थंकर की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं की भावना "भाविज्ज अवत्थ-तियं, पिंडत्थ-पयत्थ रूवरहियत्तं । छउमत्थं के वलितं, सिद्धत्तं चेव तस्सत्थो ॥1॥ ण्हवण च्चगेहिं छउमत्य, वत्थपडिहारगेहिं केवलियं । पलियंकुसग्गेहिं अ, जिणस्स भाविज्ज सिद्धत्तं ।।2।। अर्थ--पूजा के समय प्रतिमा की द्रव्यों से पूजा करते समय तीन अवस्थाओं * की भावना करें। 1-पिंडस्थ, 2-पदस्थ, 3-रूपातीत । 1-पिंडस्थ से छद्मस्थावस्था, 2-पदस्थ से केवली अवस्था और 3रूपातीत से सिद्धावस्था का विचार करें। ____1- प्रतिमा को देखकर स्नान तथा गंध विलेपन से छद्मस्थावस्था, 2-प्रतिमा के परिकर में रचित आठ प्रतिहार्यों द्वारा केवली अवस्था तथा 3-पर्यकासन एवं खड़ी कायोत्सर्ग मुद्रा द्वारा श्री जिनेश्वर की अरूपी सिद्धावस्था की भावना करें। पिंडस्थ-तीर्थ करदेव की ती कर पदवी पाने से पहली अवस्था यह तीन प्रकार की है। 1-जन्मावस्था, 2-राज्यावस्था, 3-श्रमणावस्था । इन तीनों अवस्थाओं में भगवान छामस्थ-असर्वज्ञ होते हैं। 2. पदस्थ-तीर्थ कर पदवी, जब प्रभु केवलज्ञान प्राप्त करते हैं तभी प्राप्त होती है । अतः यहां पदस्थ अवस्था यानी केवलज्ञान प्राप्ति से निर्वाण पाने तक। रूपातीत-रूप रहित अवस्था--यह अवस्था प्रभ जब निर्वाण पाकर सिद्ध हो जाते हैं तब होती है ! रूप अर्थात् वर्ण, गंध रस और स्पर्श तथा शरीर से रहित केवल अशरीरी अवस्था में आत्मस्वभाव में अवस्थान । (10) प्रभु. की प्रतिमा को देखकर उनकी पांच अवस्थानों की भावना । 1. जन्मावस्था-प्रभु प्रतिमा के परिकर में अंकित होती है । परिकर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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