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मुत्ताणं मोअगाणं
सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं
सिव-मयल-मरुअ
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मणंत- मक्खय-मव्वाबाह मपुणरावित्ति सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपत्ताणं
नमो जिणाणं जियभयाणं
स्वयं मुक्त तथा अन्यों को मुक्त करानेवालों को सर्वज्ञों को सर्वदर्शीयों को निरुपद्रव, स्थिर, व रोगरहित, अनंत, अक्षय, बाधारहित जहां से पुनरागमन न हो, ऐसा सिद्धिगति नामक स्थान प्राप्त करनेवालों को
भय को जीत लेनेवाले जिनेन्द्र भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ । जो जिन अतीत काल में सिद्ध हुए जो भविष्यकाल में होंगे
और जो वर्तमान काल में विद्यमान हैं। सबको तीन प्रकार
(मन-वचन-काया) से वंदना करता हूँ ।
जेअ अइया सिद्धा जैअ भविस्संतिणागएकाले संपइ अ वट्टमाणा सव्वे तिविहेण वंदामि
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भावार्थ
अरिहंत भगवंतो को नमस्कार हो ॥ १ ॥
धर्म की आदि करनेवालों को, प्रवचन व श्रमणसंघ रूपी तीर्थ की स्थापना करनेवालों को, तथा संसारत्याग का प्रतिबोध स्वतः प्राप्त करनेवालों को ॥ २ ॥
भव्य जीवों में परोपकारादि गुणों द्वारा उत्तम, कर्म आदि के सम्मुख शूरवीरतादि गुणों द्वारा सिंह समान, कर्मकीचड़
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