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में सुरीत्या मग्न होती है अर्थात् जो इन तीनों का पालन करती है, उसे समभाव अथवा उपशमभावं की प्राप्ति होती है ।
सामायिक का अर्थ है समभाव लानेवाली प्रवृत्ति । समभाव यह है जिसमें सुख में हर्ष - आनंद नहीं, और दुःख में खेद नहीं। चाहे संसार के इष्ट पदार्थ सामने उपस्थित हों चाहे अनिष्ट, इन दोनों के प्रति मन में राग अथवा द्वेष नहीं रखे, अर्थात् आसक्ति अथवा दुर्भाव नहीं रखना चाहिए। मन को उदासीन -तटस्थ, स्थिर, व प्रसन्न रखने का प्रयत्न रखना चाहिए ।
व्रत (प्रतिज्ञा) का महत्त्व :
इस समभाव की प्राप्ति के लिए राग, द्वेष, हर्ष, खेद उत्पन्न करनेवाले पाप - व्यापार यानी सांसारिक प्रवृत्तियों (सावद्य प्रवृत्तियों) का प्रतिज्ञाबद्ध त्याग रखना चाहिए, वे नहीं करनी चाहिए। ये होती रहें तो स्वाभावतः इनके संबंध में रागादि उत्पन्न होंगे। दूसरी बात यह है कि बिना प्रतिज्ञा केवल इन प्रवृत्तियों को न रखने से ही तत्संबन्धी कर्मबंध से बचा नहीं जा सकता। क्योंकि त्याग की प्रतिज्ञा अगर नहीं है तो मन में इन पापों की आशसा ( अपेक्षा) विद्यमान है, और पाप की अपेक्षा भी कर्मबंध का कारण है एवं वह अपेक्षा, अवसर मिलते ही बिना संकोच, पापाचरण ले आती हैं । क्योंकि मन समझता है कि मुझे तो प्रतिज्ञा नहीं है।' वे
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