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________________ किया जाता है I इस सूत्र की प्रथम गाथा में प्रभु के चार मुख्य अतिशय ( तीर्थंकर की विशेषताएँ) वर्णित की गई हैं। 'लोगस्स उज्जो अगरे' से ज्ञानातिशय, 'धम्मतित्थयरे' से वचनातिशय, 'जिणे' से अपायरागादि - अपगमातिशय, 'अरिहंते' से पूजातिशय--इन चार अतिशयों का ध्यान इस प्रकार क्रमशः किया जा सकता है कि प्रभु को मन के समक्ष लाकर उनके (१) हृदय में विश्व प्रकाशी ज्ञानप्रकाश, (२) मुख में धर्मतीर्थस्थापक वाणी, (३) नेत्र में 'जिन' की वीतरागता, तथा (४) मुख के पीछे भामंडल या दोनों ओर दुलाए जाते चंवर (चामर) प्रातिहार्य देखे जाएँ। इस प्रकार 'चडवीसंपि' में 'पि' अर्थात् 'भी' कहा है, इसका मतलब यह है कि मैं २४ प्रभु का तो कीर्तन करता ही हूँ साथ में और अनंत प्रभुओं का भी करता हूँ । यहाँ 'और' कर के २-५ क्यों लेवें ? अनंत प्रभु ही लिये जाएँ। इसलिए यहाँ २४ जिनप्रभु और उनकी चारों और अनंत जिन भगवान् नजर में लाएँ । बाद की तीन गाथाओं में क्रमशः ८ ८ ८ प्रभुओं को वंदना की गई है । तत्पश्चात् २४ व अनंत प्रभु की निर्मल और अक्षय अमर के रूप में स्तुति करके उनकी प्रसन्नता अर्थात् प्रभाव की याचना की गई है । तदुपरांत कीर्तित - वंदित - पूजित एवं उत्तम सिद्ध के रूप में स्तुति करके आरोग्य व बोधिलाभ ( अथवा भाव - आरोग्य स्वरूप मोक्ष के लिए बोधिलाभ ) एवं उत्तम भावसमाधि की प्रार्थना Jain Education International ४२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003232
Book TitleAradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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