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सर्वप्रथम पश्चात्ताप से पाप को ऊपर लाया जाता है अर्थात् स्मरण व आलोचन किया जाता है । बाद में पापघृणा तथा पाप के मूलभूत दोष के प्रति घृणाभाव के साथ प्रायश्चित्त कर के आत्मा की मूलत: विशुद्धि की जाती है ताकि पाप का शल्य न रहे, और पाप निर्मूल नष्ट हो जाए। अंत में किया जाता कायोत्सर्ग पाप की शेषभूत अशुद्धि को दूर करके आत्मा को पापमुक्त कर देता है । __ इस सूत्र में प्रथम पद 'तस्स उत्तरीकरणेणं' है अत: इसे 'तस्स उत्तरीकरणेणं' 'तस्स उत्तरी' सूत्र भी कहते हैं।
७. अन्नस्थ सूत्र अन्नत्थ ऊससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डएणं, वाय-निसग्गेणं, भैमलीए, पित्तमुच्छाए ॥१॥ सुहुमेहिं अंग-संचालेहि, सहुमेहिं खेल-संचालेहिं सुहमेहिं दिट्ठि-संचालेहिं, ॥२॥ एवमाइएहि आगारेहि अ-भग्गो, अ-विराहिओ, हुज्ज मे काउस्सग्गो ॥ ३ ॥ जाव, अरिहंताणं भगवंताणं णमुक्कारेणं न पारेमि ताव ॥४॥ कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ॥५॥
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