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उसमें यहाँ 'खमासमणुं' सूत्र में कहे हुए -- (१) 'जावणिज्जाए' व (२) 'निसीहिआए' विस्तारपूर्वक हैं । (१) 'अहो काय काय संफासं' पद से, गुरु चरणों का मस्तक से स्पर्श करने द्वारा वंदना करने व क्षमायाचने के पश्चात् 'बहुसुभेण भे' से 'जवणिज्जं च भे' तक 'जवणिज्जा = यापनीयता' - सुखशाता पूछी जाती है । तत्पश्चात् (२) 'खामेमि खमा०' से 'वोसिरामि' तक 'निसीहिया' बोलकर अर्थात् गुरु के प्रति लगे हुए दोषों का निषेध यानी त्याग अर्थात् प्रतिक्रमण निंदा-गर्दा की जाती है। उसका संक्षिप्त स्वरूप इस 'खमासमणु' (स्तोभवंदन) सूत्र में है ।
४. 'गुरु- सुखशाता पृच्छा सूत्र'
से
सुखशाता पूछने का सूत्र)
(गुरु इच्छकार सुहराई ? (सुहदेवसि ?) सुख-तप ? शरीर निराबाध ? सुखसंजमजात्रा निर्वहो छो जी ? स्वामि ! शाता छे जी ? आहार पानी का लाभ देना जी.
शब्दार्थ
“इच्छकार”-हे गुरू महाराज ! आपकी इच्छा हो तो मैं पूछें ? १ 'सुहराई ? ' - आपकी रात्रि सुखपूर्वक बीती ? 'सुहदेवसि ? - आपका दिन सुखपूर्वक व्यतीत हुआ ? २ 'सुखतप' ? - आपकी तपस्या सुखपूर्वक हो रही है ? ३ ' शरीर निराबाध' ? - आपका शरीर पीड़ारहित है न ?
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