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बहुकाल आ संसार सागर मां प्रभु हुं संचर्यो, थइ पुण्यराशि एकटी त्यारे जिनेश्वर तुं मल्यो । पण पापकर्म भरेल में सेवा सरस नव आदरी, शुभ योगने पाम्या छतां में मूर्खता बहुए करी ॥
(८) भवजलधिमांथी हे प्रभो ! करुणा करीने तारजो, ने निर्गुणीने शिवनगरनां शुभसदनमां धारजो । आ गुणी आ निर्गुणी एम भेद मोटा नव करे, शशी सूर्य मेघ परे दयालु सर्वनां दुःख दूर हरे || (९)
हे नाथ! आ संसार सागरे डूबता एवा मने, मुक्तिपुरीमा लइ जवाने जहाज रूपे छो तमे । शिव- रमणीना शुभ संगथी अभिराम एवा हे प्रभो मुज सर्व सुखनुं मुख्य कारण छो तमे नित्ये प्रभु ॥
(१०)
अंगूठे अमृत वसे लब्धितणा भंडार, श्री गुरु गौतम समरीये वांछितफल दातार ।
(११) अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम | तस्मात् कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर || (१२)
सेवामाटे सुरनगरथी देवनो संघ आवे, भक्ति-भावे सुरगिरिवरे, स्नात्र पूजा रचावे ।
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