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अंत में इस निष्ठा के साथ आह्लाद व्यक्त किया गया है कि इन सब बातों को सिद्धि प्रदान करनेवाले श्रेष्ठ मंगलरूप एवं सर्वकल्याणकारी जैनशासन जयशील है। ____ 'जयवीयराय' यह प्रार्थनासूत्र नहीं किन्तु प्रणिधानसूत्र या आशंसा सूत्र है। प्रार्थना में वीतराग से कुछ मांगा जाता है किन्तु इससे यह फलित होता है कि माँगे तो वीतराग प्रसन्न हो और माँग पूरी करे। ऐसी प्रसन्नता में वीतरागता खण्डित होती है। प्रार्थना में अर्थात् प्राप्त होता है कि सन्मुख व्यक्ति को जबतक प्रार्थना न की जाए तबतक वह प्रसन्न नहीं; वह दया नहीं करते है, किन्तु प्रार्थना करने पर इष्टपूर्ति की दया करते हैं। इससे तो वह रागी सिद्ध होगा ! वीतराग भगवान ऐसे रागद्वेष से रहित होते है अत: इस सूत्र में प्रार्थना नहीं किन्तु प्रणिधान है। सूत्र पढ़ते समय अपनी शुभ उत्कट कामना पर मन केन्द्रित हो कि यह आशंसा-इच्छा भी अरिहंत के प्रभाव से पूर्ण होगी।
प्रणिधान अर्थात् भवनिर्वेद आदि विषयों पर मन का केन्द्रीकरण, उनकी तीव्र अभिलाषा, 'मुझे यह चाहिये' ऐसी मन की आशंसा; एवं ऐसी श्रद्धा कि यह वीतराग के प्रभाव से अवश्य मिलता है। इस प्रकार भगवान् के प्रभाव की स्तुति की जाती है। इस स्तुति के अर्थ में इसे प्रार्थना कह सकते है। इस सूत्र का पाठ करते समय मन में यह भाव होना चाहिये कि मुझे 'भव निर्वेद चाहिये। मार्गानुसारिता चाहिये, इष्टफलसिद्धि चाहिये...' इत्यादि । यह दृढ़ विश्वास हो कि इसकी प्राप्ति भगवत्-प्रभाव से ही होती है।
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