SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - उतारने का अभ्यास, कष्ट में अनोखी सहिष्णुता और समभाव का आदर्श और आत्मशुद्धि कर तप में वीर्यशक्ति खोलने का सामर्थ्य मिले, जिससे मुझे विरतिधर्म सुलभ बने। __ पदस्थ अवस्था :- अर्थात तीर्थंकर पद ' अष्ट प्रातिहार्य, ३४ अतिशय, ३५ गुणयुक्त वाणी से होनेवाला उपकार आदि का चिन्तन करना । प्रभु ! आपके सिवाय तीर्थंकर नाम कर्म भी कहीं देखने को नहीं मिलेगा। तीर्थ की चतुर्विध संघ की स्थापना करके भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग की ओर प्रयाण करने के लिये आपने अजोड स्याद्वादमय तत्त्व प्रकाश दिया । हे सर्वज्ञ प्रभु आपके समवसरण में जन्मजात वैरी पशु व मानव वैर रहित बन जाते । आपकी उपशम रस भरी वाणी से मोह और कषायों को जीतने का प्रकाश प्राप्त करते । अनादि - Jain Education International Privato 3 Personal Use Onlyww.jainelibrary.org
SR No.003231
Book TitleAshtaprakari Navang Tilak ka Rahasya Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy