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में से अनेक भव्यात्माओं का उद्धार करने वाली पैंतीस गुणों से भरी हुई वाणी प्रकट हुई । इससे अनेक जीवों के संदेह दूर हुए, धर्म श्रद्धा प्रगटायी। __ हे जिनेन्द्र । आपकी नासिका कैसी । जिससे सुगंध या दुर्गन्ध के प्रति राग-द्वेष के मलीन भावों का स्पर्श नही हुआ है। हे देव ! आपकी कमल की पंखुडी जैसी आंखे कितनी निर्मल और निर्विकार हैं । इनमें से शान्त रस का अमृत झर रहा है, कृपारस बरस रहा है, इनमें गजब की आत्ममस्ती की झांकी दिख रही है । इन आंखो का उपयोग उपसर्ग करनेवाले के प्रति द्वेष या भक्ति करनेवाले के प्रति राग का पोषण करने में नही हुआ है । ओ जिनराज ! आपके इस नेत्र-युगल में निष्कारण करुणा, भाव दया, विश्वमैत्री, अपकारी के प्रति भी उपकार करने की
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