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हे वीतराग ! अनन्त पुण्य के उदय से आज आपका पुण्य दर्शन पाकर मेरा जीवन धन्य बना है, मेरी अन्तरात्मा उल्लसित बनी है । मुझे लगता है कि मेरे दरिद्रता, दुर्भाग्य व जन्म जन्मान्तर के पाप नष्ट हो गये हैं, नहिं तो मुझे आपके दर्शन मिलते ही कहां से ?
सचमुच आपकी वीतराग मुद्रा मेरी आत्मा को मोहनिद्रा से जागृत करनेवाली है । हे नाथ ! आपके दर्शन - वन्दन - पूजन करके एसा द्रढ संकल्प करता हूं कि आपके धर्मोपदेश का श्रवण करके मेरी आत्मा में शुभ संस्कारो की योग्यता प्रकट करूंगा ।
अहो ! 'परमात्मा की मुखमुद्रा कैसी शान्त और मनोहर है ! जिस मुख से कभी किसीकी निन्दा, चुगली आदि पाप नहीं हुए है, जिसमें रही हुई जीभ को कभी रस लालसा का पोषण नहीं मिला है, जिस मुख
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