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________________ बांधे १ तिर्यंचकी आयुके बंध हेतु यह है. गूढ हृदयवाला, अर्थात् जिसके कपटकी किसीको खबर न पडि, धूर्त होवे, मुखसें मीठा बोले, हृदयमें कतरणी रखे, जूठे दूषण प्रकाशे, आर्तध्यानी इस लोक के अर्थे तप क्रिया करे, अपनी पूजा महिमाके नष्ट होने के भयसें कुकर्म करके गुरुआदिकके आगे प्रकाशे नही, जूठ बोले, कमथी देवे, अधिक लेवे, गुणवानकी इर्षा करे, आर्तध्यानी कृष्णादि तीन मध्यम लेश्यावाला जीव तिर्यंच गतिका आयु बांधे. इति तिर्यंचायु २ अथ मनुष्यायुके बंध हेतु मिथ्यात्व कषायका स्वप्नावेही मंदोदय वाला प्रकृतिका भद्रिक धूल रेखा समान कषायोदयवाला सुपात्र कुपात्रकी परीक्षा विना विशेष यश कीर्तिकी वांच्छा रहित दान देवे, स्वभावे दाने देनेकी तीव्र रुचि होवे, क्षमा, आर्जव, मार्दव , दया, सत्य शौचादिक मध्यम गुणामें वर्ते, सुसंबोध्य होवे, देव गुरुका पूजक, पूजाप्रिय कापोत लेश्याके परिणामवाला मनुष्य तिर्यंचादि मनुष्यायु बांधे ३ अथदेव आयु अविरति सम्यगद्रष्टि मनुष्य तीर्यंच देवताका आयु बांधे, सुमित्रके संयोगसें धर्मकी रुचिवाला देशविरति सरागसंयमी देवायु बांधे, बालतप अर्थात् दुःखगर्भित, मोहगर्भित वैराग्य करके दुष्कार कष्ट पंचाग्नि साधन रस परित्यागसें, अनेक प्रकारका अज्ञान तप करने से निदान सहित अत्यंत रोष तथा अहंकारसें तप करे, असुरादि देवताका आय बांधे तथा अकाम निर्जरा अजाणपणे भूख, तृषा, शीत, उष्ण रोगादि कष्ट सहने से स्त्री अनमिलते शील पाले , विषयकी प्राप्तिके अभावसें विषय न सेंवनेसें इत्यादि अकाम निर्झरासें तथा बाल मरण अर्थात जलमें कूद मरे, अग्निसें जल मरे, उंपापातसें मरे, शुभ परिणाम किंचितवाला तो व्यंतर देवताका आयु बांधे, आचार्यादिककी अवज्ञा करे तो, किल्विष देवताका आयु बांधे, तथा मिथ्याद्रष्टीके गुणांकी प्रशंसा करे, महिमा बढावे, अज्ञान तप करे, और अत्यंत क्रोधी होवे तो, परमाधार्मिकका आयु बांधे. इति देवायुके बंध हेतु . यह आयु कर्म हड्डिके बंधन समान है. इसके उदयसें चारों गतके जीव जीवते है, और जब आयु पूर्ण हो जाता है तब कोइभी तिसकों नही जीवा सक्ता है, जेकर आयुकर्म विना जीव जीवे तो मतधारीयो के अवतार पैगंबर क्यों मरते १ जितनी आयु पूर्व जन्ममें जीव बांधके आया है तिससे एक क्षण मात्रभी कोइ अधिक नही जीव सकता है, और न किसीकों जीवा सकता है । मतधारी जो कहते है हमारे अवतारादिकनें अमुक अमुककों फिर जीवता करा, यह वाते महा मिथ्या है, क्योंकि जेकर उनमें ऐसी शक्ति होती 10500GOAGOOGOAGAGAGDAG00000GORGOAN GOAGUAGAGAGEAGOOGBAGDAGDAGAGAGet Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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