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हुआ है, यह माननाभी ठीक नही, क्योंकि श्री महावीरजीसें २५० वर्ष पहिले श्री पार्श्वनाथजी और तिनसे पहिले श्री नेमिनाथादि तीर्थंकर हुए है, तिनके वचन लेके बौद्धायनादि शास्त्र रचे गए है, जैनी ऐसे मानते है, जेकर कोइ ऐसे मानता होवे कि जैनमत थोडा है और ब्राह्मण मत बहुत है, इस वास्ते थोडे मतसें बडा मत रचा क्यों कर सिद्ध होवे, यह अनुमान अतीत कालकी अपेक्षाए कसा मानना ठीक नही, क्योंकि इस हिंदुस्तानमें बुद्धके जीते हुए बुद्धमत विस्तारवंत नही था, परंतु पीछेसे ऐसा फैलाके ब्राह्मणोका मत बहतही तुच्छ रह गया था, इसी तरे कोइ मत किसी कालमे अधिक हो जाता है, और किसी कालमे न्यून हो जाता है, इस वास्ते थोडा और बड़ा मत देखके थोडे मतको षेडेसे रचा मानना ये अनुमान सच्चा नहीं है, नद मोक्षमूलरने यह तो अनुमान करके अपने पुस्तकमें लिखा है कि वेदोंके दोभाग और मंत्रभागके रचेकों २९०० वा ३१०० सौ वर्ष हुए है, तो फेर बौद्धायनादि शास्त्र बहुत पुराने रचे हुए क्यों कर सिद्ध होवेंगे, इस वास्ते अपने मनकल्पित अनुमानसें जो कल्पना करनी सो सर्व सत्य नही हो शक्ती है, इस वास्ते अन्य मतोंमे जो ज्ञान है सो सर्व जैन मतमें है, परंतु जैनमतका जो ज्ञान है सो किसी मतमे सर्व नहीं है, इस वास्ते जैन मतके द्वादशांगोके ही किंचित वचन लेके लोकोने मनकल्पित उसमें कुछ अधिक मिलाके मत रच लीन है, हमारे अनुमानसें तो यही सिद्ध होता है.
प्र.१४४. कोइ यूरोपियन विद्वान् ऐसे कहता है कि बौद्धमतके पुस्तक जैन मतसें चढते है ?
उ. जेकर श्लोक संख्या मे अधिक होवे अथवा गिनतिमें अधिक होवे अथवा कवितामें अधिक होवे, तबतो अधिकता कोइ माने तो हमारी कुछ हानि नही है, परंतु जे कर ऐसे मानता होवे के बौद्ध पुस्तकोमें जैन पुस्तकोंसे धर्मका स्वरूप अधिक कथन करा है, यह मानना बिलकुल भूल संयुक्त मालुम होता है, क्योंकि जैन पुस्तकोंमें जैसा धर्मका रूप और धर्म नीतिका स्वरूप कथन करा है, वैसा सर्व दुनीयां के पुस्तको में नही है.
प्र.१४५. जैन के पुस्तक बहुत थोडे है, और बौद्धमतके पुस्तक बहुत है, इस वास्ते अधिकता है ? .
उ. संपति काल में जौ जैनमतके पुस्तक है वे सर्व किसी जैनीनेभी
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