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________________ पुन्य पापका कर्ताभुक्ता किसकों देखा, और निर्वाण पद किसकों हुआ देखा, जेकर कोई यह कहे के नवीन नवीन क्षणकों किसकों हुआ देखा, जेकर कोइ यह कहेके नवीन नवीन क्षणकों पिछले २ क्षणोकी वासना लगती जाती है, कर्त्ता पिछला क्षण है, और भोक्त अगला क्षण है, मोक्षका साधन तो अन्य क्षणने करा, और मोक्ष अगले क्षणकी हुइ. निर्वाण उसकों कहते है कि जो दीपककी तरें क्षणोका बुझ जाना, अर्थात् सर्व क्षण परंपराका सर्वथा अभाव हो जाणा, अथवा शुद्ध क्षणोकी परंपराय रह ती है. पांच स्कंधोसें वस्तु उत्पन्न होती है, पांचो स्कंघभी क्षणिक है, कारण कार्य एक कालमे नही हैं, इत्यादि सर्व बौद्ध मतका सिद्धांत अयौक्तिक है १ बुधके शिष्य देवदत्तने बुधको मांस खाना छुडाने वास्ते बहुत उपदेश करा, परंतु बुद्धने न माना, अंतमेंभी सूयरका मांस और चावल अपने उसके घरसें चंद सोनारके घरसें लेके खाया, और वेदना ग्रस्त होकर के मरा, और पाणी के जीव बुद्धकों नही दीखे तिससे कच्चे पानीके पीने और स्नान करनेका उपदेश अपने शिष्योंकों करा, इत्यादि असमंजस मतके उपदेशककों हम क्यों कर सर्वज्ञ परमेश्वर मान सके, जो जो धर्मके शब्द बौद्ध मतमें कथन करे है वे सर्व शब्द ब्राह्मणोके मतमेंतो है नही, इस वास्ते वे सर्व शब्द जैन मतसें लीये है. बुद्ध पहिलें जैन धर्म था, तिसका प्रमाण हम उपर लिख आए है, बुद्धके शिष्य मौद्गलायन और शारि पुत्रने श्री महावीरके चरितानुसारी बुद्धकों सर्व सें ऊंचा करके कथन करा सिद्ध होता है, इस वास्ते जैनमतवाले बुद्धके धर्मकों सर्वज्ञका कथन करा हुआ नही मानते है. प्र.१४३. कितनेक यूरोपीयन विद्वान् ऐसे कहते है कि जैन मत ब्राह्मणोंके मतमेसें लीया है, अर्थात् ब्राह्मणणोके शास्त्रो की बातां लेके जैन मत रचा है ? उ. यूरोपीयन विद्वानोने जैन मतके सर्व पुस्तक वांचे नही मालुम होते है, क्योंकि जेकर ब्राह्मणोके मतमें अधिक ज्ञान होवे, और जैनमतमें तिसके साथ मिलता थोडासा ज्ञान होवे, तब तो हमभी जैनमत ब्राह्मणोके मतसें रचा ऐसा मान लेवे, परंतु जैनमतका ज्ञानतो ब्राह्मणादि सर्व मतोके पुस्तकोंसें अधिक और विलक्षहै, क्योंकि जैनमतके बेद पुस्तक और कर्माके स्वरूप कथन करने वाले कर्म प्रकृति, १ पंचसंग्रह, २ षटकर्म ग्रंथादि पुस्तकों में जैसा ज्ञान कथन करा है, तैसा ज्ञान सर्व दुनियाके मतके पुस्तकों मे नही है, *** ००००००००००००० Jain Education International ०००००००० ६० 可供解案 ०००००००००००००० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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