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प्र.७५ श्री देवर्धिगणि क्षमाश्रमणसें पहिलां जैन मतका कोइ पुस्तक लिखा हुआ था के नही.
उ. अंगोपांगादि शास्त्रतो लिखे हुए नही मालुम होते है, परंतु कितनेक अतिशय अद्भुत चमत्कारी विद्याके पुस्तक और कितनीक आम्नायके पुस्तक लिखे हुए मालुम होते है, क्योंकि विक्रमादित्यके समयमें श्री सिद्धसेन दिवाकर नामा जैनाचार्य हुआ है, तिनोंने चित्रकुटके किल्लेमें एक जैन मंदिर में एक बडा भारी एक पथरका बीचमे पोलाडवाला स्तंभ देखा, तिसमे श्री सिद्धसेनसें पहिले होगए कितनेक पूर्वधर आचार्योने विद्यायोंके कितनेक पुस्तक स्थापन करेथे, तिस स्तंभका ढांकणा ऐसी किसी उषधीके लेपसें बंद करा था कि सर्व स्तंभ एक सरीषा मालुम पडताथा, तिस स्तंभका ढांकणा श्री सिद्धसेन दिवाकरकों मालुम पडा, तिनोंने किसीक औषधीका लेप करा तिससे स्तंभका ढांकणा खुल गय. जब पुस्तक देखनेकों एक निकाला तिसका एक पत्र वांच्या, तिसके उपर दो विद्या लिखी हूइथी. एक सुवर्ण सिद्धी १ दूसरी पर चक्र सैन्य निवारणी २ इन दोनो विद्यायोंके बांचे पीछे जब आगे बांचने लगे तब तिन विद्यायोंके अधिष्ठाता देवताने श्री सिद्धसेन को कहा कि आगे मत वांचो, तमारे भाग्य में ये दोही विद्या है । तब श्री सिद्धसेन दिवाकरजीनें स्तंभका मुख बंद करा. वो एक पुस्तक अपने पास रखा, पीछे तिस पुस्तक कों उज्जयन नगरीके श्री आवंती पार्श्वनाथजीके मंदिर मे गुप्तपणे कही रख दीया . पीछे वो पुस्तक श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज जो विक्रम संवत् १२०४ में थे तिनकों तिस मंदिरमें से मिला. अब वोही पुस्तक जैसलमेरके श्री चिंतामणि पार्श्वनाथजीके मंदिर मे बडे यत्नसें रखा हुआ है, ऐसा हमने सुना है और चित्रकुटका स्तंभ भूमिमें गरक हो गया, यह कथन कितनेक पट्टावलि प्रमुख ग्रंथोंमें लिखा हुआ है. इस वास्ते श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणसें पहिलांनी कितनेक पुस्तक लिखे हुए मालुम होते है |
प्र.७६. श्री महावीरजीके समय में कितने राजे श्री महावीरके भक्त थे।
उ. राजगृहका राजे श्रेणिक जिसका दूसरा नाम बंभसार था, १ चंपाका राजा बंभसारका पुत्र अशोकचंद्र जिसका नाम कोणिक प्रसिद्ध था, २ वैशालिनगरीका राजा चेटक, ३ काशी देशके नव मल्लिक जाति के राजे
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