SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्र. ६५. सम्यक्त पूर्वक किसकों कहते है । 1 उ. भगवंतके कथनकों जो सत्य करके श्रद्धे, तिसकों सम्यक्त कहते है, सो कथन यह है लोककी अस्ति है १ अलोकभी है २ जीवभी है ३ अजीवभी है ४ कर्मका बंधनो है ५ कर्मका मोहभी है ६ पुन्यभीहै ७ पापभीहै ८ आश्रव कर्मका आवणाभी जीवमे है ९ कर्म आवने के रोकणेका उपाय संबरभी है १० करे कर्मका वेदना भोगनाभी है ११ कर्मकी निर्जराभी है कर्म फल देके खिरजाते है १२ अरिहंत है १३ चक्रवर्ती है १४ बलदेव बासुदेवभी है १५ नरक है १६ नारकी है १७ तिर्यंच है १८ तिर्यंचणी है १९ माता पिता ऋषी है २० देवता और देवलोक है २१ सिद्धिं स्थान है २२ सिद्ध है २३ परिनिर्वाण है २४ परिनिवृत्त है २५ जीवहिंसा है २५ जूठ है २६ चौरी है २७ मैथुन है २८ परिग्रह है २९ क्रोध, मान माया लोन, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन, परनिंदा, माया, मृषा, मिथ्यादर्शन, शल्यये सर्व है । इन पूर्वोक्त जीव हिंसासें लेके मिथ्यादर्शन पर्यंत अठारह पापों के प्रतिपक्षी अठारह प्रकार के त्यागभी है ३० सर्व अस्ति श्रावकों अस्ति रुपे और नास्तिभावकों नास्तिरूपें भगवंतने कहा है ३१ अच्छे कर्मका अच्छा फल होता है बुरे कर्मका बुरा फल होता है ३२ पुण्य पाप दोनो संसारावस्था में जीव के साथ रहते है ३३ यह तो निर्ग्रथोंके वचन है वे अति उत्तम देवलोक और मोक्षके देने वाले है ३४ चार काम करने बाला जीव मरके नरक गतिमें उत्पन्न होता है । महा हिंसक, क्षेत्र वाडी कर्षण सर सोसादिसें महाजीवांका बध करनेवाला १ महा परिग्रहतृश्ना वाला २ मांसका खाने वाला ३ पंचेंद्रिय जीवका मारने वाला ४ ॥ चार काम करने वाला मरके तिर्यंच गति में उत्पन्न होता है. माया कपटसें दूसरे के साथ ठगी करे १ अपने करे कपट के ढांकने वास्ते जुठ बोले २ कमथी तोल देवे अधिक तोल लेवे ३ गुणवंतके गुण देख सुनके निंदा करे ४ चार काम करने से मनुष्य गतिमें उत्पन्न होता है, भद्रिक स्वभाव वाले स्वभावें कुटलितासें रहित होवे १ स्वभावेहीं विनयवंत होवे २ दयावंत होवे ३ गुणवंतके गुणसुनके देखके द्वेष न करे ४॥ चार कारण से देवगतिमें उत्पन्न होता है, सरागी साधुपणा पालने से १ गृहस्थ धर्म देश वृत्ति पालन सें २ अज्ञान तप करने से ३ अकाम निर्जरासें ४ तथा जैसी नरक तिर्यंच गति मे जीव वेदना भोगता है और मनुष्यपणा अनित्य है, व्याधि, जरा, मरण वेदना करके बहुत भरा हुआ है, इस वास्ते धर्म करणे में उद्यम करो. देवलोकमें देवतायोंकों २१ १७०७० Jain Education International ००००००००००००००० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy