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________________ वायुभूति ३ ये तीनो सगे भाइ, गौतम गोत्री, इनका जन्म गाम मगधदेशमें गोर्बरगाम, इनका पिता बसुभूति, माताका नाम पृथिवी, उमर तीनोकी गृहवासमें क्रमसे ५०/४६/४२ वर्षकी इनके विद्यार्थी ५०० पांच पांचसौ चतुर्दश विद्याके पारगामी चौथा अव्यक्त नामा १ भारद्वाज गोत्र २ जन्म गाम कोल्लाक सन्निवेस ३ पिताका नाम धनमित्र ४ माता वारुणी नामा ५ गृहवासें उमर ५० वर्षकी ६ विद्यार्थी ५०० सौ ७ विद्या १४ का जान पांचमा सुधर्म नामा १ अग्नि वैश्यायन गोत्री २ जन्म गाम कोल्लाक सन्निवेस ३ पिता धम्मिल ४ अद्रिला माता ५ गृहवास ५० वर्ष ६ विद्यार्थी ५०० सौ ७ विद्या । १४। ८. छठ्ठा मंदिकपुत्र नाम १ बाशिष्ठ गोत्र २ जन्म गाम मौर्य सन्निवेश ३ पिता धनदेव ४ माता विजयदेवा ५ गृहवास ६५ वर्ष ६ विद्यार्थी ३५० सौ ७ विद्या | १४ | ८. सातमा मौर्य पुत्र नाम १ काश्यप गोत्र २ जन्म गाम मौर्य सन्निवेस ३ पिता मौर्य नाम ४ माता विजयदेवी ५ गृहवास ५३ वर्ष ६ विद्यार्थी ३५० सौ ७ विद्या | १४ । ८. आठमा अकंपित नाम १ गौतम गोत्र २ जन्म गाम मिथिला ३ पिता नाम देव ४ माता जयंती ५ गृहवास ४८ वर्ष ६ विद्यार्थी ३०० सौ, विद्या १४ । ८. नवमा अचलभ्राता नाम १ गोत्र हारीत २ जन्म ठाम कोशला ३ पिता नाम वसु ४ नंदा माता ५ गृहवास ४६ वर्ष ६ विद्यार्थी ३०० सौ, विद्या १४ / ८ दसमेका नाम मेतार्य १ गोत्र कौडिन्य २ जन्म गाम कौशला वत्स भूमिमे ३ पिता दत्त ४ माता बरुणदेवा ५ गृहवास ३६ वर्ष ६ विद्यार्थी ३०० तीनसौ ७ विद्या १४ । ८. इग्यारमा प्रभास नामा १ गोत्र कौडिन्य २ जन्म राजगृह ३ पिता बल ४ माता अतिभद्रा ५ गृहवास १६ वर्ष ६ विद्यार्थी ३०० सौ ७ विद्या १४/८. इस स्वरूप वाले इग्यारे मुख्य ब्राह्मणा यज्ञ पाडेमें थे तिनोके कानमें पूर्वोक्त शब्द सर्वज्ञकी महिमाका पडा, तब इंद्रभूति गौतम अभिमानसें सर्वज्ञका मान भंजन करने वास्ते भगवंतके पास आया । तिनकों देखके आश्चर्यवान् हुआ, तब भगवंतने कहा हे इंद्रभूति, गौतम तुं आया, तब गौतम मनमें चिंतने लगा मेरे नाम लेनेसें तो मै सर्वज्ञ नही मानुं, परं मेरे रिदय गत संशय दूर करे तो सर्वज्ञ मानुं तब भगवंतने तिनके वेदज पद और युक्तिसे संशय दूर करा. तब ५०० सौ छात्रा सहित गौतमजीने क्षीनी, ए बडा शिष्य हुआ. इसी तरे इग्यारहीके मनके संशय दूर करे और सर्वने दीक्षा लीनी. सर्व ४४०० सौ इग्यारे अधिक शिष्य हुए. इग्यारोंके मनमें जीव है के नही १ कर्महै के नही २ जो जीव है सोइ शरीर है वा शरीर . १९ 190600600 Jain Education International ven For Private & Personal Use Only ver www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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