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________________ की दृष्टि से अपना पुण्य सबल है या दुर्बल ? पुण्य की कितनी पहुँच है ? और ऐसे पुण्य के धन के बिना आशा में ही बहता जाता है कि 'शायद मुझे मिलेगा।' 'क्या' पुण्य धन के बिना सुख-सुविधा की सामग्री मिलनेवाली है ? पुण्य नहीं बढ़ाना है - यह बदनसीबी है फिर खूबी तो यह कि पुण्य बढ़ाने को मन नहीं करता, नहीं तो फिर भी ऐसा हो कि पुण्य बढ़ाने से या तो उस पुण्य की उदीरणा होने पर वह जल्दी उदय में आकर लाभ बताए, अथवा पुण्य-जनक सुकृत का निमित्त पाकर खजाने में पड़ा हुआ निष्क्रिय पुण्य ही उदय में आ जाय और माल प्राप्त हो, ऐसा हो जाय । लेकिन, नहीं, पुण्य को बढानेवाले सुकृत करना ही नहीं है, सद्गुणों को विकसाना नहीं है, अच्छे अच्छे विचारों और अच्छी अच्छी भावनाओं में रत नहीं रहना है । मानव के अवतार में यह कितना बडा दुर्भाग्य है ? विडंबना है ? अब भी, ऐसा कर के भी यदि आशा रखता हो तो वाज़िब माना जाय, लेकिन जीवन में इसकी जरूरत ही महसूस नहीं होती, संकट के समय भी जरूरत नही महसूस होती तो फिर सुख-संपत्ति के समय की तो बात ही क्या ? वहाँ तो बस एक ही बात कि 'अपने को अच्छा मिल गया है न ? तो मौज करो, जिन्हें नहीं मिला वे बेचारे धर्म किया करें, तप करें, सामायिक प्रतिक्रमण - पौषधादि करें, व्याख्यान सुनें, पर हमें ऐसी फुरसत कहाँ से हो ? है न घमंड और लापरवाही ? वज़ह क्या ? 'धर्म पर श्रद्धा तो है', ऐसा तो मानता है, पर सत्त्व नहीं है अतः ऐसे धर्म-पुरुषार्थ कर नहीं सकता । तब नहीं करने का बचाव तो करना चाहिए न ? इसलिए फुरसत का बहाना आगे करता है । लक्ष्मी और उससे मिलनेवाले भरपूर विषयोंने उसे अकर्मण्य निष्क्रिय बना दिया है, उसका सत्त्व नष्ट कर दिया है। । इसीलिए तो यह बात है सत्त्व और वीर्य का नाश मत करो, बल्कि उसका विकास करो, उसमें वृद्धि करते चलो । Jain Education International - ९१ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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