________________
१. कथा जिसमें नहीं व्यथा
नतमस्तक आचार्यदेवश्री पर ह्रीदेवी प्रसन्न हो गयी। वर्षों की इच्छा फलीभूत हुई ।
ह्रीदेवी :- आचार्यश्री ! हाथ में कलम उठाईये। देखिये आपकी अजोड़ कृति के दर्शन करने के लिये पूर्वदिशा से सूर्य नारायण झाँक रहा है।
आचार्यश्री :- माताजी ! बड़ी कृपा की आपने । आप जैसी अरिहंत भक्त शासनसेविका महादेवी के दर्शन से मेरे नेत्र धन्य बने हैं। आपका आदेश स्वीकार करता हूँ । मुझे ऐसा बल दीजिये, ऐसे आशीवार्द दीजिये कि समस्त कथा साहित्य में सिरमौर बने, ऐसी सुन्दर कृति की रचना करने के लिये मैं कटिबद्ध बनूँ ! वि.सं. ८३५ वर्ष पूर्व इस भारतदेश की पवित्र धरा को अलंकृत कर चुके पू. आचार्य भगवंत श्री उद्योतन सूरि महाराज यानी जैन शासन के उद्यान में महकता हुआ गुलाब का फूल । उनकी पवित्र संयमसाधना के प्रताप से ह्रीदेवी उन पर प्रसन्न हुई और उसी कृपा के फलस्वरूप आचार्यश्री ने जिस महान कथाग्रंथ की रचना की, उसका नाम है
कु व लय मा ला
मंगलाचरण
पढमं णमह जिणिदं जाए णच्चंति जम्मि देवीओ । उव्वेल्लिरबाहुलया, रणंत-मणिवलय-ताले हि ।।
कुवलयमाला कथाग्रंथ के मंगलाचरण के इस प्रथम श्लोक में कथाकार महर्षि प्रथम जिनेश्वर को भावपूर्ण वन्दना करते हुए कहते हैं ।
(१) नमस्कार कीजिये उन प्रथम जिनेश्वर आदीश्वर भगवान को, जिनके जन्म के समय देवियों बाहुलतायें ऊँची करके झंकार करते हुए रत्नवलयों की ताल-ध्वनि के साथ नृत्य करती हैं ।
Jain Education International
O
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org