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________________ प्रभु से भला होनेवाला ही है । मेरे जिनेश्वर भगवान् की अचिन्त्य, असीम शक्ति है, प्रभाव है, अनन्त करूणा है। मेरे तो वही एक उनकी ही शरण है ।' ऐसा निर्धार हो और उद्देश किसी मलिन लोभ-लालच का न हो, किसी का कुछ बिगाडने का न हो, अहन्त्व, सत्ता, ठकुराई- बादशाही का न हो, क्योकिं उसमें जबरदस्त असमाधि होती है, चित्त की अस्वस्थता, बेचैनी होती है; किन्तु उद्देश्य हो समाधिवर्धक साधन का तो प्रार्थना क्यो फलवती न होगी ? दुनिया के लबालब भरे हुए पुण्य जो चित्त की स्वस्थता, शांति-स्फूर्ति नहीं दे सकते, वह अचिन्त्य प्रभावी वीतराग प्रभु के आलंबन से प्राप्त होती है, एक मात्र प्रभु की शरण ग्रहण करने से मिलती है । यहाँ राजा दृढवर्मा निश्चय करके बैठा है कि 'तीन रातों की अवधिमें देवी के दर्शन होने चाहिए, नही तो अपना सिर काटकर चढा दूँगा ।' ऐसे निश्चय की कसोटी तो होती ही है, परन्तु पराक्रमी पुरुष धीरज नहीं खोए, उसी तरह जरूरत आ पड़ने पर मौत की भी परवाह न करें। मन को ऐसा लगे कि श्रद्धा की विचारणा अगर उचित माँग सफल हो ऐसा प्रभाव काम करता नहीं दिखाई देता तो इसमें देवाधिदेव के प्रभाव की खामी नहीं है बल्कि उसे झेलने और उसके अनुकूल होने की जो श्रद्धा चाहिए उसकी मुझमें कमी है । तो यदि यह कमी ही तो जी कर भी क्या करना है ? मृत्यु आने पर भी यह श्रद्धा अखंड हो जाती हो, पॉवरफुल (बलवान) बन जाती हो तो परलोक में वह बहुत काम आएगी। तीन लोकों के नाथ पर और उनके प्रभाव पर ऐसी श्रद्धा नही है इसलिए तो व्यर्थ भटकते हैं, जडासक्ति मैंपना ( अहंता ), ईर्ष्या, धिक्कार, दुर्भाव, अमैत्री आदि भयानक दोषों और निम्न, निष्फल उपायों में भटकते है । यहाँ अब कदाचित मरण का भी स्वागत कर नाथ पर और नाथ के अचिन्त्य, असीम प्रभाव पर अनन्य श्रद्धा हो जाती हो तो उसके समान धन्य घडी और कौनसी हैं ? राजा की पहली रात बीती, दूसरी बीती, तीसरा दिन भी व्यतीत होते लगा किंतु देवी के दर्शन नहीं हुए, फिर भी राजा स्वस्थ है; निश्चित होकर वह तो साधना में बैठा और संकल्प बोल चुका, तब से देवी के गुणगान करना जारी है। वह एक रात, दूसरा दिन, दूसरी रात, तीसरा दिन...... एक ही काम करता बैठा हुआ है; देवी की कृपा, उसके अतीत के उपकार - पराक्रम और उसकी वत्सलता का विचार कर रहा है । Jain Education International ६३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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