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________________ इसके लिए जीवों को दान, भेट, अभय आदि देना चाहिए । महोत्सव, पर्युषण, बडे सामूहिक धार्मिक कार्यक्रम आदि में यह विशेषतः आवश्यक है । राजा दृढवर्माने ऐसा किया। पहले दान- उपहारादि दिये, यह साधना की पूर्वविधि हुई; उसके बाद देवी के आगे मणिरत्न की भूमीपर फूलों का गालीचा, धूप आदि किया, तब वह स्वयं घास के आसन पर घुटनों के बल रह कर देवी को अंजलिबद्ध नमस्कार कर के उसे संबोधित कर के कहता हैराजा की भीष्म प्रतिज्ञा - - ' हे तेजस्वी हार से सुशोभित तथा कौस्तुभ मणिकी किरणों से व्याप्त देवी ! मेरी यह प्रार्थना सुन, कि तू ही कमला - लक्ष्मी - श्री ही कान्ति और समृद्ध निर्वाणी, यावत् महाशांति सम्पदा तू ही है । अतः तू मुझे तीन रात्रियों के भीतर दर्शन देना, अन्यथा तलवार की धार से काटा हुआ मेरा मस्तक स्वीकार कर लेना ।' बस, इतना कह कर प्रणाम कर के राजा देवी के सामने आसन पर बैठ गया राजा साधना करने आया है, वह निश्चित फलवती साधना करने; अतः कैसा महा जोखिम भरा निश्चय प्रकट करता है ? कार्य-सिद्धि कैसे होती होगी ? देवमहादेव को किस प्रकार अनुग्रहकारी बनाया जाता होगा ? ढीली-ढाली (निःसत्त्व) साधना से या फिर 'करेंगे या मरेंगे' के निर्णयवाली साधना में बैठ कर ? वर्तमान काल का एक अविस्मरणीय प्रसंग एक शहर में हमारी एक भाई से भेंट हुई । आज तो वे मुनि बन गये है, परन्तु दीक्षा से पूर्व की यह बात है । उन्होंने मुझसे कहा, 'महाराज ! एक बार मेरे व्यापार में जबरदस्त उलझन आ गयी। दो तीन लाख रुपयों का सवाल था । क्या किया जाय- यह भारी चिंता थी। किंतु मुझे यहाँ के मूलनायक भगवान पर बहुत श्रद्धा थी। अतः वैसे भी कई बार प्रभुजी के सामने बैठ कर एकाग्रतापूर्वक मेरे चित्त में निर्मलता और समाधि के लिए प्रभु से प्रार्थना में लग जाता, और साहब ! मुझे सचमुच कहना चाहिए कि इसके फलस्वरूप प्रभु के प्रताप से मुझ में बहुत सुधार होता जाता, दूसरे के प्रति द्वेष, तिरस्कार, ईर्ष्या, दुर्भावना आदि कितने ही दोष नामशेष - से हो गये थे। हमारे घर में से घरवाली का भी स्वभाव जरा भी ठीक नहीं था, परन्तु मुझे उनके प्रति भी मन में कुछ बुरा न लगता । मैं तो सोचता कि 'सव्वे जीवा कम्मवस', फलतः बार बार समाधि सद्बुद्धिकी हार्दिक ६१ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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