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________________ 'यदि हम दूसरों के सामने छोटे न बनने के लिए, और अपने द्वारा कल्पित अपना मान बचाने के लिए, अपनी निम्न बोलचाल का इकरार नहीं करते हैं तो दूसरों के दिल में हमारे प्रति सद्भावना कम हो जाती है । इसके बदले यदि हम गर्व छोड़ कर दूसरे के सामने अपनी गलती कबूल कर उसका खूब पश्चाताप प्रकट करें तो सामनेवाले के मन में हमारे प्रति सद्भावना कायम रहती है। इस तरह पहले तरीके में हमारे मान की रक्षा है तो दूसरे में सामनेवाले के मन में सद्भावना की रक्षा है | अब सोचिये | मान की भावना जीतने के लिए : क्या हमारे मान की रक्षा लाभदायक है ? या हमारे प्रति दूसरे की सद्भावना बनी रहे बढे यह लाभदायक है ? सही पदार्थ की पहचान करने योग्य है | हमारा मान तो हमारे अपने मन का माना हुआ है । दूसरे उसे मंजूर करें या न भी करें, जब कि सद्भाव तो उसके मन में अंकित हो जाता है, और वह उसके दिल में हमारे प्रति सच्चा सम्मान पैदा करता है | तो हमारे अपने द्वारा कल्पित मान की तुलना में यह वास्तविक मान क्या बुरा है ? और फिर उसे हमारे प्रति यह सच्चा मान पैदा होने के बाद तो वह मौके पर उपयोगी बनता है, बाहर हमारे लिए अच्छा बोलेगा । हमारी निंदा वह खुद तो नहीं करेगा बल्कि दूसरे करनेवाले को भी जरुरत होने पर रोकेगा । सामनेवाले के सद्भाव और बहुमान (आदर) तो बहुत उपयोगी हैं, लेकिन मनुष्य उससे भावी महान् लाभों को नहीं देखता अतः उन्हें छोड़ कर व्यर्थ के प्रयत्नों में लगा रहता है । मान की भूख में खिंचकर 'मैं क्यों गलत कहलाऊँ ? क्यों मैं अपने आपको नीचा बनाऊँ ?' ऐसे गलत विचारों में घिसटता है और दूसरे की सद्भावना खोता है; तथा ऐसी दुर्भावना पाता है जो आगे चलकर जीवन में हानिकारक साबित होती है। चंडसोम तो खुद ही पश्चात्ताप की आग में इतना जल रहा है कि अपने मान का उसमें विचार ही नहीं रहा, या खुद के नीचा बनने - की अपमानित होने की भी चिंता नहीं रही । इसलिए खुद ही अपने अधम दुष्कृत्य को प्रकट करता हुआ उसकी सख्त सजा के रुप में चिता में जल मरने की जल्दी में है । अब यह देख कर उसके दुष्कृत्य पर गाँववालों को गुस्सा करने का अवसर ही कहाँ रहा ? अब तो उसके स्थान पर चंडसोम पर सद्भाव उभरता है, दया उभरती है, और उसे जल मरने से किसी भी तरह रोकने का प्रयत्न करते हैं । उससे कहते है - 'देख २३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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