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________________ पतन कैसे होता है ? :बिगडे हुए की शर्म से : जगत में अनर्थ इसी तरह से अटकते नहीं हैं । एककी बुद्धि बिगडी; फिर दूसरा उससे जरा भी सहानुभूति जताए कि बस ! हो गया । काम आगे बढता है । आज के लडके-लडकियों में इस तरह से यह अनिष्ट बढ़ता जा रहा है । पहले एक की बुद्धि बिगड़ती है, दूसरा उसका इन्कार नहीं करता । अतः उसका काम बन जाता है । उसमें यह दूसरा मूलतः तो बिगडा हूआ न भी हो,. लेकिन शर्म या लालच के कारण मना नहीं कर सकता, अतः पहलेवाले का आगे बढता है । और दोनों पतन के मार्ग पर अग्रसर हो जाते हैं। यदि वहाँ वह शर्म में पड़े, या लालच में न फँसे और साफ साफ इन्कार कर दे, और साथही दूसरे को अच्छी सलाह दे तो संभव है कि स्वयं तो न गिरे, पर दूसरा भी लौट पड़े अथवा कम से कम अपनी तो सुरक्षा हो ही जाय । इसलिए व्यर्थ शर्म में नहीं पड़ना चाहिए | | झूठी शर्म पतन का कारण है :- | उस कामलता के प्रसंग में आता है न कि वह अच्छी, सुशील ब्रह्मणी होते हुए भी घेरा डाल कर रहे हुए शत्रु राजा के शिकंजे में फंसी । राजा ने उसका हरण कर उसे शर्म में डाला तो वह गिरी । पतन हुआ, शील खोया। और राजरानी बन बैठी । भीतर से दिल मना करता है, परन्तु शर्म ने दिल को दबा दिया | बुरी भावना को यदि जरा भी बलवती बनने दिया जाय तो वह बुरी भावना अच्छे आंतरिक मन को भी निष्क्रिय बनाने में समर्थ है । समकिती का चित्त कैसा होता है ? उत्तम! वैराग्य वासित, विषयों को विष स्वरुप देखनेवाला । फिर भी वह विषय-संग (आसक्ति) में क्यों गिरता है ? क्यों कि अविरति के घर का विषय राग बलवान् बन जाता है, इसलिए । वैराग्य के बावजूद राग क्यों ? विषयों की विष मानने के बाद भी विषयराग हो सकता है ? हाँ, भले ही विष मान लिया, परन्तु गले में विषयों का मधुर स्वाद लगा हुआ होता है, और उसे उखाडने का पर्याप्त पुरुषार्थ-पराक्रम नहीं होता, फिर तो वह मधुर स्वाद (मिठास) राग ही करवाता है । फलतः एक ओर तो जहर जैसा मानने के कारण उसके प्रति घृणा, अरुचि रहती है, फिर दूसरी ओर काबू में न की गयी मिठास से राग सक्रिय बनता है | समझदार रोगी कुपथ्य को कैसा मानता है ? २१८ 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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