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________________ दिया। और रानी ने जाकर बार बार उससे कहा 'बोध पाओ ! बोध पाओ! कुंतला!' इस तरह बार बार कहने पर कुतिया को जातिस्मरण (पूर्व जन्म का ज्ञान ) हुआ; और वह बोध प्राप्त कर पाप का पश्चाताप करने लगी और अनशन कर के स्वर्ग गयी । यह तो ऐसा निमित्त मिला तो उसके आलंबन से उबरी तर गयी । तिर्यंच के भव मे भी ईर्ष्या को वोसिराया (त्याग दिया ) उड़ा दिया और अपने-आप का उद्धार किया । परंतु ऐसा निमित्त कितनों को मिलता है ? मुश्किल से लाखों में एक निकले । अन्यथा ईर्ष्या से परलोक में मरना (दुःखी होना) है - दुःख तो भोगो ही, पाप भी करो। इसका परिणाम ? (३) ये पाप और नये अशुभ कर्मों को पैदा करेंगे फलतः निम्न गति दुःख और पाप की परंपरा चलती रहेगी। (४) तब परभव में उस दुर्गति दुःखों और पापों के रस के बीच धर्म तो कहाँ से सुझे? धर्म विभाग में से डिसमिस (खारिज ) । दूसरों का हित सहन नहीं होता, जलन होती है । दूसरे को आदर - सत्कार मिलता हो उसे देखकर दिल जलता है; हमें मिलनेवाला कोई दूसरा ले जाता है, यह देख कर उस से द्वेष - अरूचि होती है - यह सब ईर्ष्या है, असूया है, असहिष्णुता है। इस से होनेवाले उन सब नुकसानों के बारे में सोचेंगे तो ईर्ष्या जहरीली नागिन से भी भयानक मालूम होगी। मन को लगेगा कि ऐसी घातक ईर्ष्या करने के बजाय नागिन डस ले तो इतना सारा नुकसान नहीं होगा जितना ईर्ष्या से होता है । सिंह- गुफावासी मुनि : 1 ईर्ष्या तो इतनी भयंकर है कि ईर्ष्या के मारे कुछ किया जाय तो उसमें से और नये दोष तथा नये अहित खड़े होते है । सिंहगुफावासी मुनि को क्या हुआ था, जानते हो न ? गुरूने उनसे अधिक स्थूलभद्रमुनि की प्रशंसा की वह सहन नहीं हुई, ईर्ष्या हुईं, तो गुरु की आज्ञा न होतें हुए भी स्थूलभद्र की नकल करने गये। पहुँच गये कोशा वेश्या की बहन उपकोशा के यहाँ चौमासा करने। लेकिन उनका क्या ऐसा सामर्थ्य था उपकोशा की सौन्दर्यमय काया को देख कर ढीलेढप हो गये ! अतः कामवासना भड़क उठी । निर्लज्ज हो कर वेश्या से भोग-विलास की याचना की । वह भी तो प्रबल श्राविका बनी हुई कोशा की बहन ठहरी । तिस पर आर्य देश की वेश्या; अतः समझती है कि साधुसन्त का यह काम नहीं हैं । इसलिए उसने धन की माँग की । साधू ने कहा- 'मैं धन कहाँ से लाऊँ ?' वेश्या ने कहा- 'जाओ, नेपाल का राजा नवागत संन्यासी को रत्नकंवल का २०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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