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________________ को हानि पहुँचाने का प्रयत्न करे या सहायक न बने ! __(vi) ईर्ष्या बहुत बुरी है; उसके विचार बहुत आया करते हैं, अतः सद्विचार करने का समय खा जाती है, देव गुरू धर्म की सेवा में चित्त नहीं लगने देती। (vii) ईर्ष्या या निंदा करने वाले को यह शायद ही कभी लगे कि 'मैं यह बुरा करता हूँ, इससे मेरे कषाय को पोषण मिलता है।' उलटे वह मानेगा और कहेगा कि 'इसमें ईर्ष्या काहे की कहलाएगी ? निंदा काहे की ? यों तो मुझे उसके प्रति आदर है, लेकिन यह तो मैं तथ्य है सो कहता हूँ ।' यह क्या है ? 'ईर्ष्या पर और माया कपट! और निंदा पर सत्यकथन की छाप।' ऐसे में सम्यक्त्व कहाँ रह सकता है ? यह माया-कषाय अनन्तानुबंधी प्रकार का बन कर सम्यक्त्व का नाश करता __ जरा सोचियेगा - ईर्ष्या से होनेवाली ये हानियाँ तो इहलोक (यहाँ) की, परन्तु परलोक की हानियाँ भी कितनी और कैसी कैसी? ईर्ष्या से परलोक में होनेवाले नुकसान : (१) ईर्ष्या करनेवाला माया खेलता है - कपट रचता है फलतः स्त्री वेद नामक कर्म बाँधता है, तिर्यंच गति भी बाँधता है, साथ ही ईर्ष्या अशुभ भाव है, इससे और भी कितने ही अशुभ कर्म बँधते है, जैसे अशातावेदनीय, अपयशनाम कर्म, दौर्भाग्य नाम कर्म, अनादेय नामकर्म-अशुभ वर्ण-रस गंध-स्पर्श नामकर्म आदि आदि। इन सब का फल सोचिये - कि ये कर्म उदय में आकर क्या क्या फल देंगे, कैसे कैसे दुःख देंगे? (२) इतना ही नहीं बल्कि विशेष नुकसान तो यह कि ईर्ष्या के कारण जो मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का बंध होता है, अर्थात् कुसंस्कार पैदा होते है, वे पुनः भवांतर में उदय पाकर जीव को पापी बनाते हैं । पापों का सेवन कराते हैं ! तामसी कृत्य करवाते हैं। | ईर्ष्यालु कुन्तला रानी :- 7 जानते हो न उस कुन्तला रानी को। वह अपनी सौत रानी से उसकी जिनभक्ति के ठाठ के विषय में ईर्ष्या करती रही, तो मरकर कुतिया बनी; और ऐसा होने के बाद भी उस सौत रानी के प्रति ईर्ष्या-वश भौंकती रहने लगी । यह तो अच्छा हुआ कि वह सौत रानी भली थी, सो ज्ञानी के मिलने पर दुःख से पूछने लगी कि 'हे भगवान ! वह बेचारी मेरी बहन-रानी जल्दी मर गयी, सो मरकर कहाँ गयी ?' तब ज्ञानीने उसे राजकिले के बाहर भौंकती हुई इस कुतिया का परिचय २०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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