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________________ यदि यह अपेक्षा न हो तो प्रभु के यथार्थ मोक्ष मार्ग बताने का कोई अर्थ नहीं है । लेकिन समझो कि मोक्ष-मार्ग के उपदेश के पीछे जीवों को उसका पुरुषार्थ करनेवाला बनाने की अपेक्षा है । भावी निश्चित है फिर भी पुरुषार्थ का उपदेश : इसीलिए तो ज्ञानी स्वयं जीवों का निश्चित समयपर मोक्ष जानते हुए भी कभी ऐसा नहीं कहते कि 'तुम्हारे निश्चित समय पर ही मोक्ष होने की भवितव्यता है । अतः पुरुषार्थ करना व्यर्थ है ।' नहीं, ऐसा नहीं, ऐसा कभी नहीं कहते । अरे ! यह देखो कि कहीं कभी एकाध बार किसी से मोक्ष प्राप्ति का निश्चित समय कहें तो भी उसे पुरुषार्थ का उपदेश तो अवश्य देते हैं । गौतम स्वामी को खेद होता था कि 'अयँ ! तो मुझे केवलज्ञान नहीं ?, मेरा मोक्ष नहीं ?' तब भगवान ने कहा 'गौतम ! दुःख न करो। इसी भव के अन्त में तेरा मोक्ष है। हम दोनों समान बनेंगे ।' ऐसा कहनेवाले प्रभु पुनः उनसे कहते हैं 'समयं गोयम ! मा पमायए।' अर्थात् पुरुषार्थ तो जारी रखने को ही कहते हैं । ऐसे किसी एकाध को नियतभावी बता दे यह अलग बात है, फिर भी सर्वसामान्य उपदेश तो मोक्षमार्ग के ज्वलन्त पुरुषार्थ का ही देते हैं। पर, असत्पुरुषार्थ किया करने का या निष्क्रिय बनकर बैठे रहने और निश्चित भावी पर अर्थात् भवितव्यता पर आधार रखने का उपदेश नहीं देते । कारण एक ही कि वह निश्चित भावी इस सत्पुरुषार्थ से ही होने की बात जानते हैं । अकेली भवितव्यता कारण नहीं है तात्पर्य यह कि ज्ञानियों का सत्पुरुषार्थ करने का खूब उपदेश होता है, इससे सूचित होता है कि 'अकेली भवितव्यता कारणभूत होती नहीं और वह अकेली कुछ कर भी नहीं सकती । वह तो काल, स्वभाव, पुरुषार्थ और शुभकर्म-प्रेरित अच्छे निमित्त कारणों को साथ लेकर ही काम करती है । अतः इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि 'जैसी भवितव्यता होगी वैसा होगा ।' अथवा 'ज्ञानी ने देखा वैसा होगा ।' क्योंकि ज्ञानी ने तो यह भी देखा है कि 'पुरुषार्थ करने से ही मोक्ष होगा ।' पुरुषार्थ क्यों वैसे ही न हो जाय ? : प्र० ज्ञानियों ने देखा होगा तब पुरुषार्थ भी हो ही जाए न ? अपने मन से चाह कर पुरुषार्थ किसलिए करना ? उ० 'पुरुषार्थ' वस्तु को पहचानने में ही भूल हुई । पुरुषार्थ ऐसे ही (अनायास) हो जाय वैसी चीज नहीं है । पुरुषार्थ यों ही हो जाता हो और चाहकर न करना २०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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