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________________ बात में एक बार उलाहना दे तो चार बार जाने देना चाहिए | फिर कभी योग्य अवसर दिखाई दे तब शांति से समझाया जाय । परन्तु ऐसा बन नहीं पाता इसलिए डाँट-डपट चालू रहती है जिससे वह गुरूजन परिवार की सद्भावना खो देता है ! यह अस्थाने (अयोग्य अवसर पर) अभिनिवेश के कारण होता है। (ii) कुछ लोगों को ऐसी बुरी आदत होती है कि बातचीत के दौरान किसी ऐसी महत्वहीन बात पर जिद करेंगे कि फिर उस बात को घिसा ही करेंगे । यह अस्थान अभिनिवेश है । इससे वे औरों का - सामनेवालों का ऐतराज-नाराजगी पैदा करते हैं । परन्तु ऐसे मत्ताग्रहियों को इसकी परवाह नहीं होती । वे तो अपने मन में होशियारी समझते हैं कि मैं सामने वाले को कैसा बढिया गले उतार रहा हूँ ।' अरे भाई पर, यह तो देख कि वह तेरी बात को दिलचस्पी से सुनता भी है या नहीं? उसके चेहरे पर प्रसन्नता दिखाई देती है ? या मुँह गंभीर रखता है ? वह तेरे साथ फिर से बातचीत - विचार विनिमय करना चाहता है ? शांति से बात करने बैठता है ?" नहीं, यह कुछ नहीं देखना है, अपने ही मताग्रह में चलते रहना है। ___ (iii) इस तरह, अस्थाने अभिनिवेश से तात्पर्य जिस बात-वस्तु पर हमारा अधिकार न हो, जो वस्तु ज्ञानिगम्य हो, शास्त्र अलग ढंग से कहता-करता हो वहाँ अपनी कल्पना के आधार पर और ही अनुमान कर के उसकी हठ पकड़ना - यह अस्थान अभिनिवेश है । मालिक की आमदनी बहुत हो, लेकिन नौकर को समझ रखना चाहिए कि मैं अपने वेतन का ही हकदार हूँ इसमें ऐंसी जिद नहीं की जा सकती कि “मालिक की कमाई बहुत है तो मुझे ज्यादह क्यों नहीं देते? इस तरह 'जीव मोक्ष में जाते हैं फिर भी संसार कभी क्यों खाली होनेवाला ही नहीं है। यह बात ज्ञानिगम्य है। यहाँ ऐसी जिद की जाय कि 'पीप में से दाने निकालते निकालते कभी तो पीप खाली होता ही है न ? इसी तरह संसार खाली कैसे नहीं होगा ? तो ऐसी जिद गलत है | भाई ! यह तो ज्ञानगम्य है कि खाली नहीं ही होगा । क्यों जिद करते हो ? जो बात अपरिमित भूतकाल में नहीं हुई वह अब परिमित भविष्यकाल में कैसे होगी? काल की और मोक्ष में जाने की आदि (प्रारंभ) है ? नहीं, यह अनादि से चला आता है । तो ऐसे अपार जिस का ओर छोर नहीं ऐसे भूतकाल में खाली नहीं हुआ इस से कुछ सूचित होता है या नहीं ? यही सूचित करता है कि 'जीव इतने सारे अनंतानंत हैं कि उस अपरिमित काल को भी मात कर देते है अतः संसार कभी खाली नहीं होगा। फिर भी यदि यह बात बुद्धि में न उतरे तो इसे ज्ञानिगम्य, 'सर्वज्ञदृष्ट' 'सर्वज्ञकथित ' समझ कर ‘संसार रिक्त होना ही चाहिए, ऐसा अमिनिवेश करना |१९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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