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________________ यदि हम समझते हों कि 'हमने कुछ सुधार तो पाया है परन्तु ऐसी निर्बलता वाले हम हैं कि बुरा निमित्त मिलने पर हमारा सुधार बँक जाता है, और हम ही खराबी खडी करते हैं।' तो यह समझ कर बुरे निमित्त से दूर ही दूर रहना चाहिये । उदाहरण के तौरपर - आरोग्य विषयक नियम जान लिये। आरोग्य की तमन्ना हमें जागी। परन्तु प्रलोभनों से बचने जितना मनोबल नहीं है, तो ऐसे प्रलोभनों से दूर रहना ही बेहत्तर है । ऐसा व्रत - नियम ही ले रखना कि 'मेरे इस वस्तुका त्याग है।' अब यदि यह नियम साल भर या महिने भर के लिए न बन सके तो आखिर आज के दिन के लिए ही, अथवा सामने उपस्थित प्रसंगभर के लिए नियम । इस तरह प्रलोभन से बचा जाय तो निर्बल मन फँसे नहीं । । ऐसा ही सदाचार ब्रह्मचर्य की वृत्ति-को दृढ रखने के लिए भी समझना । हम कोई स्थूलभद्र के समान सुदृढ मनोबलवाले नहीं हैं । यह बात अपने आप के बारे में समझ सकते है | सदाचार अच्छा लगता है, ब्रह्मचर्य अच्छा लगता है फिर भी मनोबल इतना सशक्त नहीं है कि 'प्रलोभक परिस्थिति में आँखे ही ऊंची न हों और सौंदर्य आदि का लेशमात्र विचार तक न उठे ।' अपनी इस तरह की निर्बल मनवाली आत्मदशा को ध्यान में रखकर स्त्रीदर्शन, स्त्रीके विचार, मोहक श्रवण या मोहक पठन से अलग ही रहना चाहिए। हमारी वृत्ति भले ही बुरी न हो परन्तु उसके भरोसे प्रलोभक परिस्थिति में अपने आपको नहीं डालना चाहिए, क्यों कि वृत्ति की आत्मदशा शुभ होते हुए भी मनोबल की आत्मदशा इतनी अच्छी नहीं है अतः उसे ऐसी परिस्थिती देना ही नहीं । मनोबल कैसे बढाया जाय ? ___ मनोबल की आत्मदशा सुधारने का यह भी एक उपाय है कि बुरे संयोगों और प्रलोभनकारी निमित्तों से दूर ही दूर रहे जिससे अच्छी विचारसरणी जारी रहे और कुसंस्कार मिटते जाएँ। बुरे संयोगों और प्रलोभनकारी निमित्तों से दूर ही दूर रहे जिससे अच्छी विचारसरणी जारी रहे और कुसंस्कार मिटते जाएँ । बुरे संयोगों और निमित्तों में रहने से तो निर्बल मन के कारण अशुभ विचार आया करते हैं और उसके फलस्वरूप मन अधिक निर्बल बनता जाता है । अतः यहाँ बुरे निमित्त में रहकर अच्छे बने रहने का प्रयोग नहीं करना चाहिए, और अच्छे निमित्तों का खूब सेवन करना आवश्यक है, और इस तरह विचारसरणी अच्छी की, अच्छी रखते रहें, तो मनोबल बढ़ता जाय, मन की आत्मदशा सुधरती जाय । चंडसोम क्रोधित क्यों ? बात यह है कि बिगडने सुधरने में हमारी आत्मदशा बहुत जिम्मेदार है । बेचारे -१९७ - १९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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