________________
अच्छा निमित्त मिला है । महावीर प्रभु वहाँ ध्यानमें खड़े है ! और दर्शन दे रहे हैं । अब यहाँ यदि चंडकौशिक यह बहाना करे कि 'क्या करूँ ? मैं तो बहुत शांति रखना चाहता हूँ, परन्तु यह कोई मेरे सामने मेरी सीमा में आकर हठपूर्वक खडा रहे तो गुस्सा आवे ही न ?' तो उसका यह बहाना कितना कमजोर है ? अरे पर देख तो सही कि तेरे आँगन में यह कैसी परम दयामय दिव्य विभूति आकर खडी है ?' इसका आनन्द लेने के बदले ईष्या करता है ? ऐसे तो ईर्ष्यालु के सामने कई भले आदमी होते है ? इस कारण उसकी ईर्ष्या ही भभका करे तो यह सज्जनों का कसूर है ? भले आदमी गुनाहगार है ?
प्र० चाहे वे नहीं हों पर उसके कर्म तो दोषी है न ?
उ० मतलब ? उसमें वे कर्म बुरे हैं तो क्या इस कारण आत्म-दशा बुरी ही चलती रहेगी ? उसमें सुधार हो ही नहीं सकता यही न? तब तो फिर चंडकौशिक में सुधार कैसे होता ?
चंडकौशिक का ज्वलन्त पुरुषार्थः- इसलिए समझिये कि ऐसा नहीं है | बुरी आत्मदशा को भी सुधारना हो तो पुरूषार्थ की दिशा बदलने से सुधर सकती है । चंडकौशिक ने ऐसा किया है । 'प्रभु महावीर के वचन 'बुज्झ बुज्झ चंडकोसिया' ये पाकर उसने सत्पुरूषार्थ जाग्रत किया है, ध्यान दिया है कि 'ये क्या कहते है?,' इस पर से जातिस्मरण ज्ञान द्वारा उसने अपनी पहले की खराबी को देखा। उस के बाद (१) घोर पश्चाताप का पुरूषार्थ जगाया । अब (१) उस क्रोध का दोष नष्ट करने के दृढ संकल्प का पुरूषार्थ जगाया । प्रभु के सम्मुख उसका संकल्प करने का और (४) बिल में वापिस जाकर शांत पडे रहने का और (५) क्षमा के भंडार प्रभु को ही दृष्टि-समक्ष (मद्दे नजर) रखने का पुरुषार्थ दृढ किया (६) सैंकडो - हजारों चीटियों के द्वारा उसे भीषण दंश दे दे कर बींध डालने का किया गया उपद्रव सह लेने का पुरूषार्थ जगाया सो किस तरह ? अपनी काया और सुखशीलता के सामने कठोर मन से - सहर्ष सहने का पुरूषार्थ जाग्रत किया; तो इन सब ज्वलन्त सत्पुरुषार्थों से आत्मदशा सुधार ली और मरकर देवलोक की सद्गति प्राप्त की ! बस ।
मुख्य उद्देश्य आत्मदशा के सुधार का :
वीतराग प्रभु के दर्शन पूजन गुणगान साधुसेवा सत्संग - जिनवाणी-श्रवण ... आदि सद् निमित्त पा पाकर हमें यह करना है कि हम अपनी आत्मदशा को सुधारते जायें।
१९३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org