SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन-शैली का आधार किस पर ? __इसलिए - (अर्थात) हमारी इस तरह की जीवनशैली के लिए हमारी भली - बुरी आत्मदशा ही विशेषतः जिम्मेवार है | हम बहाना निकालते हैं कि 'क्या करें? . हमें लोग बुरे मिले हैं इसलिए हमें गुस्सा करना पडता है' परन्तु इसमें हमारी आत्मदशा कैसी है इस का हम विचार नहीं करते; अथवा 'नहीं, वह तो अच्छी है' ऐसी भ्रान्ति में रहते हैं । हम ऐसे ही ऐसे आत्मदशा के विषय में अज्ञान या भ्रम रखा करें तब तो उसे सुधारने का विचार ही कहाँ किया जाय ? प्र० क्या आत्मदशा सुधर सकती है सही ? उ० हाँ सुधरती हैं, इस के लिए यह सोचिये कि आत्मा की दशा बुरी हो और उसके कारण बात बात में गुस्सा या घमंड, हर्ष या उद्धेग, लोभ और मूर्छ (मोह) आया करते हों तो भी ऐसा नहीं है कि 'भाई ! यह तो जैसे हमारे पूर्व के कर्म और संस्कार वैसी स्थिति रहा करती है, उसमें हम क्या कर सकते हैं।' नहीं, ऐसा नहीं है । प्रयल से इसे सुधर सकते हैं । यदि ऐसा न होता तो मोक्षमार्ग का अस्तित्व ही न होता और किसी जीव की सद्गति या मोक्ष होता ही नहीं, क्यों कि जीवने भूतकाल में उल्टा ही काम किया है, अतः ऐसे बुरे कर्म और संस्कार ही लेकर आया है । फलतः उस पर खराब आत्मदशा ही कायम रहती, उससे पुनः नये कर्म और संस्कार भी खराब ही रहते; उस की ऐसी ही आत्मदशा चलती, इस तरह यदि उसे सुधार सकने की स्थिति ही न हो तो सद्गति कैसे हो ? और मोक्ष हो ही कहाँ से ? चंड कौशिक सर्प अधम आत्मदशा लेकर आया हुआ था, तो महावीर भगवान् के दर्शन और वाणी से भी वह दशा कैसे बदल सकती ? फिर भी बदली है यह तथ्य है | तभी वह दुर्गति की परंपरा में पड़ने के बदले ऊँची देवता की सद्गति प्राप्त कर सका है । हम बहाने बनाते है कि क्या करें? हमारी आत्मदशा ही निकृष्ट हो उस स्थिति में वैसे वैसे निमित्त मिलने पर हम बिगडे नहीं तो और क्या हो? परन्तु यहाँ विवेक करना योग्य है । बुरी आत्मदशा में दो तत्त्व काम करते हैं, एक तो हमारे अपने पूर्व अशुभ कर्म, और दूसरा उस पर हमारा नया असत्पुरूषार्थ ! उदाहरणतया पहले से क्रोध - मोहनीय कर्म लेकर आये हैं, वह कर्म निमित्त पाकर उदय में जब आता है तब अन्तर में क्रोध की आग सुलगती है। फिर उस पर बाहर आँखे चढाई जाती है (तरेरी जाती है) बडबड और धमाधम करते हैं, यह नया असत्पुरुषार्थ किया कहा जाता है । ये दोनों मिलकर अधम आत्मदशा का निर्माण करते है | यहाँ इतना १९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy