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________________ बड़े दावानल उन जीवों को बीच में रखकर सेंकते है जलाते हैं । कड़ाहों में खलखल खौलते हुए तेल में तले जाते हैं, यंत्रों में पिसना पड़ता है अरे ऐसा ऐसा तो कितना ही चला करता है, सो कम से कम दस हजार वर्ष । और अधिक आयुष्य हो तो अधिक से अधिक ३३ सागरोपम तक । एक एक सागरोपम दस दस कोटाकोटि पल्योपमों का। एक एक पल्योपम में असंख्य वर्ष जाते हैं । महर्षि राजा से कहते हैं, 'हे राजन् ! उन नरकों के दारूण दुःखों में सताये जाने की जो वेदनाएँ हैं उन्हें ध्यान में लो तो फिर संसार से वैराग्य होने का कारण क्या पूछना ? इस संसार के पापों के पीछे उपस्थित होनेवाली ऐसी नरक की यातनाएँ सहज में ही संहार पर से आस्था उड़ा दें । पापाचरण करते समय कहना आसान है कि- 'परलोक किसने देखा है ?' स्वर्ग नरक तो किसी डेढ अक्लवालेकी केवल उपजाई हुई बाते हैं । हम कुछ नहीं मानते, और ऐसे कोई स्थान ही नहीं हैं तो फिर वहाँ जाने की बात क्या ? फिर भी जाना पड़ेगा तो देख लेंगे ।' परन्तु पाप में जीवन बिताने के बाद ऐसी भयंकर नरक- पीडाएँ सचमुच आ खड़ी होंगी तब कैसे सही जाएँगी। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि 'पापों को आज छोइँ', मूढतावश पापों में इसी तरह सड़ते हुए मरते हैं। फिर पाप के ऐसे स्निग्ध - (गाढेचिकने) भाव के साथ आयुष्य बाँध कर नरक में पडेंगे तो कैसी दशा होगी ? पर अतः हे नरनाथ ! (राजन्) जो आत्मा सावधान हो कर पुण्य-पाप को समझता है ( विवेक करता है) वह भले-बुरे भाव को भी समझता है, अतः बुरे भाव से दूर रहकर सदा शुभ भाव में रमण करता है। ( रत रहता है) नरक में नारकी के जीवों को सताये जाने में जो पीड़ा होती है उसका वर्णन तो सर्वज्ञ भगवान ही कर सकते हैं। हम जैसे अज्ञानी कहाँ से कर सकते हैं ? महर्षि का यह कहने का तात्पर्य (सार) यह है कि ये दुःख यहाँ के दुःखों से अनन्तगुने हैं। यदि उनकी तुलना में विचार करें तो मानों यहाँ कोई दुःख ही नहीं है । इसीलिए तो कहा जाता है कि वहाँ की अकेली एक गर्मी का दुःख इतना अधिक है कि वहाँ के जीव को यहाँ लाकर आगकी बडी भट्टी में सुलाया जाय तो उसे छह महीने नींद आ जाय ऐसी ठंडक मालूम हो। तो नरक के अन्य - कटने कुचले जाने - पिसने आदि की पीडाएँ तो अलग, पर केवल गर्मी का दुःख भी कितना उग्र ? Jain Education International १७७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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