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________________ दूसरे पशु-पक्षी उन्हें अपनी दाढ-दांत-पंजों में उलझा कर उनके शरीर की खींचातानी करते हैं । ऐसी ऐसी पीड़ाओं और ऐसी वेदनाओं का पार नहीं। तब कहीं उस जीव को जबरदस्त संताप का विचार आता है कि - | नरक के जीवों का सन्ताप : 'अरे रे! हमने अतीत में मूढ बनकर कैसे कैसे अकार्य किये ? तइओ जिय मह कहियं, नरए किर एरिसीओ वियणाओ ।। ण य सद्दहामि मूढो एण्हि अणुहोमि पच्चक्ख ।। उन अकार्यो को करते समय मुझे गुरूओं ने कहा था, 'भाई ! अकार्य के फल स्वरूप नरक में ऐसे ऐसे ढंगकी वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं, परन्तु उस समय मैंने उन पर श्रद्धा नहीं रखी ! और अब मैं उनका प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा हूँ।' 'हाय ! हाय ! पहले मुझे रोक ही रहे थे कि 'अरे ! तू इन जीवों को न मार! झूठ मत बोल ! चोरियाँ न कर, परस्त्री पर नजर न डाल, धन का परिग्रह मत बढ़ा ! परन्तु मैंने तो माना ही नहीं, तो जिस धन की खातिर वे पाप किये वह धन आज कहाँ है ? पैसे अब मेरी रक्षा करने कहाँ आते हैं ? जिन कुटुम्बियों के लिए, यह हिंसा किये बिना तो चल ही नहीं सकता, झूठ-अनीति के बिना निर्वाह (निबाह) नहीं हो सकता, कैसे भी प्रपंच करके पैसा पाना ही चाहिए, महा आरंभसमारंभ करने से ही इन सब को सुख-चैन कराया जा सकता है, जीवन-निर्वाह हो सकता है' आदि आदि बहाने बना बना कर उन पापों का सेवन किया, वह कुटुम्ब तेरा, हे मूर्ख जीव ! कहाँ गया ? उनमें से कौन तुझे यहाँ बचाने आता है ? पूर्व काल में दूसरों की भरपेट निंदा की, ईर्ष्या की, छल-प्रपंच - अभिमान किया, गुरू कहते कि 'यह सब मत कर', सो तूने माना नहीं, तो अब उसके कितने कितने भीषण परिणाम भोगने पड़ रहे हैं। सम्यक्त्व-प्राप्त जीव क्षणभर ऐसा कुछ संताप पश्चात्ताप करते हैं। महामिथ्यात्वी को तो ऐसा सझे ही कहाँ से ? उसने तो पूर्व-भव में भी - 'स्वर्ग-नरक किसने देखे है ?' आदि बकवास की है, अश्रद्धा की है, उसके रूढ हुए संस्कार यहाँ भी उसे सूझने ही कैसे दें? तब चिंता संताप करनेवाले को भी आराम से ऐसा करने का वहाँ मौका नहीं रहता। क्योंकि नाना प्रकार की दारूण वेदनाएँ वहाँ नयी नयी उत्पन्न हुआ ही करती हैं जो अत्यन्त असह्य होती हैं । वन में चारों ओर लगे हुए १७६ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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