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श्री कुवलयमाला के रचयिता महापुरूष आचार्य श्री उद्योतनसुप्रिजी महाराज आगे फरमाते हैं कि यह धर्म चार प्रकार का है-दानमय, शीलमय, तपमय और भावनामय | पहले तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान ने स्वयं इन चार प्रकार के धर्म की साधना की, केवलज्ञान-सर्वज्ञता प्राप्त की और बाद में उन्होंने इस अवसर्पिणी काल में शुद्ध धर्म का प्रकाश दिया ...
४ प्रकार का धर्म
प्रभु ने किस प्रकार चतुर्विध धर्म की साधना की ?
(१) पहले तो वर्षीदान दिया । एक वर्ष तक घोषणापूर्वक लोगों को दान देते रहे; यह दानधर्म की साधना हुई ।
(२) प्रभु गृहवास का त्याग कर अणगारजीवन - साधुजीवन अर्थात् अहिंसादि व्रतमय सर्वविरति सामायिक स्वीकार कर संयम पालने लगे, इस प्रकार शीलधर्म साधा !
(३) उसके साथ ही तपस्या कायकष्ट संलीनता यानी मन-वचन-काया का संगोपन-संकोच-संयमन, ध्यान आदि करते रहे । इस प्रकार तपधर्म की साधना
की।
(४) इस साधना के समय अनित्यता - अशरणता आदि बारह तत्त्वों का चिन्तन किया इस प्रकार भावनाधर्म की साधना की ।
बाह्य धन-धान्य-काया-परिवार आदि के संयोग अनित्य हैं, नाशवंत हैं, इसी तरह आभ्यन्तर क्रोधादि भाव के संयोग भी ऐसे ही हैं, ऐसे चिन्तन-अनुप्रेक्षा को भावना कहते हैं । इस चिन्तन से आत्मा को ऐसा भावित करना है कि सहज में
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