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इस प्रकार, झूठ, अनीति करने से पैसे मिलते हुए दिखते हैं और धर्म की गिनती रखनी नहीं है, तो फिर सगे भाई या पडौस के भी माल या पैसे क्यों नहीं हड़प कर जाएगा ? एक कुटुंब में भी कुटुंबीजनों से चोरी छुपे अच्छा-अच्छा खुद खा ले, और पीछे वालों को लिये बचा-खूचा ही खाने का रखे ? इसे कौन रोकेगा ? न्याय-नीति-प्रामणिकता का धर्म यदि जरुरी ही नहीं है, तो यह लूट, उठाईगीरी आदि मैं हर्ज़ ही क्या है ? यदि इसमें कोई हर्ज है तो यही धर्म का महत्व बताता
इस प्रकार, यदि काम भोग का ही महत्व हो और धर्म का कोई महत्व न हो, तो फिर सदाचार धर्म का भी क्या काम? उसकी भी कोई आवश्यकता नहीं; फिर कुत्ते-कुत्तिया या जहाँ भाई-बहन, माँ-बेटे का भोग संबन्ध यथेच्छ चलता है, ऐसी दशा को रोकने वाला कौन ? ऐसे भोगों को क्यों अच्छा नहीं मानता ? ऐसे भोग या राह चलती चाहे जिस स्त्री के भोग को कौन रोकता है ? उसके आडे कौन आता है ? सदाचार धर्म ही न ? धर्म को जरुरी न मानना हो, तो ये सब काम क्यों नहीं करने योग्य हैं ?
इस प्रकार मृद मुलायम - कोमल व्यवहार भी रखनेका क्या काम ? तामसी - क्रोधी रौब भरे क्रूर कठोर व्यवहार के आड़े क्षमता-नम्रता सौम्यता धर्म ही खड़ा रहेगा। यदि जीवन में धर्म की कोई जरूरत ही नहीं है, तो जंगली जैसे व्यवहारो को अयोग्य क्यो कहना? यह करने वाले को क्यों रोकना ? आपको ऐसे व्यवहार करने से कौन रोकता है ? क्या सामने से मार पड़ने का भय आपको रोकता है; यति भय ही रोकता हो, तो बलवान के द्वारा निर्बल पर ऐसे जंगली व्यवहार किए जाने में क्या हर्ज है ?
इसलिये कहना ही पड़ेगा कि धर्म की तो पहले जरूरत है; सही महत्व तो धर्म का ही है । इसलिये तो चाहे जैसे पैसे या भोग विलास मिलते हों, परन्तु यदि जीवदया सत्य, नीति सदाचार क्षमा नम्रता मैत्री आदि धर्म का उल्लंघन होता हो, तो उन्हें छोड़ दिया जाता है । अतः पहला महत्व तो धर्म का ही हुआ |
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