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देव और गुरू क्यों मान्य हैं ? ___ इसीलिए कि वें गुणों के भंडार हैं। ज्ञान के निधान हैं और सच्चरित्र तथा निर्मल तत्त्वदृष्टि से युक्त हैं। दोनों में अन्तर यह कि देव पराकाष्ठा (चरम सीमा) पर पहुँचे हुए है और गुरू पहुँचने की राह पर है । अतः दोनों की उपासना हमें गुण, ज्ञान, तत्त्वदृष्टि तथा सच्चरित्रता में आगे बढ़ाते हैं, अतः ये तत्त्व, ये विशेषताएँ देखकर जो व्यक्ति अपने इष्ट देव तथा उपास्य गुरू का चुनाव करता है (निर्णय लेता है) वह रास्ता नहीं भूलेगा । इन गुणों को छोड़ कर चमत्कार तथा बाह्याडम्बर पर लुब्ध हो जाय तो सच्चे के स्थान पर अयोग्य बनावटी देव गुरू से लग्गा लग जाय। अतः जानते हो न ? कि जिसकी दाल बिगड़ी उसका दिन बिगडा; जिसने वस्त्र खरीदने में भूल की उसके दो चार महीने बिगड़ें; जिससे धान्य (अनाज) भरने में भूल हुई उसका साल बिगडी ।
पत्नी करने में गलती हुई उसका एक जीवन (भव) बिगडा, परन्तु इष्ट देवगुरू खोजने में गफलत हुई और किसी अयोग्य को शिरोधार्य कर उसकी सेवा जारी रखी उसके भवोभव बिगड गये।
क्योंकि अयोग्य देव से तात्पर्य रागादि दोषो वाले कामादि लीलावाले, असर्वज्ञ, बहुत वस्तुओं के अज्ञानवाले और हिंसादि असत् चारित्रवाले | उन्हें यदि आदर्श के रूप में सम्मुख रखा जाय और उनके अज्ञानतामूलक आदेशों को माना जाय तो क्या प्राप्त होगा ? उसी तरह यदि गुरु भी कोई ऐसे वैसे अर्थात् किसी ऐसे ही देव के पीछे लगे हुए, परिणामतः मिथ्यातत्त्व को माननेवाले, सूक्ष्म अहिंसादि से रहित और उपदेश भी इसी तरह का देनेवाले ऐसे देवगुरू को पकडने से जीवन में क्या मिलेगा ? क्या आएगा? धर्म के नाम पर दोष, और चारित्र्य के नाम पर अचारित्र असंयम! आज दुनिया में ऐसा ही चलता दिखाई देता है न ? __ तो यह बहुत भयंकर बात है कि 'दोष, पाप, असंयम, अतत्त्व आदि को गुण, धर्म, चारित्र और तत्त्व के रूप में ही स्वीकार कर लिया जाय !' इससे हृदय बहुत निष्ठुर बन जाय । पाप को पाप-रूप समझते हुए भी उसका आचरण करता हो तब तो हृदय कोमल रहता है, किसी दिन वीर्योल्लास बढ़ने पर पाप से बच सकता है; पाप मात्र को त्याज्य तो समझता ही है | परन्त यदि पाप को धर्म रूप ही माने तब तो उससे बचने की और उसे छोड़ने की बात ही कहाँ रही ? इसी तरह यदि दोष को ही गुण मान बैठे और असंयम को ही यदि चारित्र मान कर उसका आचरण करे तो उससे दूर होने की बात भी क्या ? उलटे, इस एक जीवन में मिथ्या देव
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