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________________ अभयकुमार का दृष्टान्तः परिणाम तक विचारणा को ले जाया जाय सो पारिणामिकी बुद्धि | अभयकुमारने प्रभु महावीर से पूछा 'प्रभु ! आपके शासन में अन्तिम राजर्षि कौन ?' भगवान ने उत्तर दिया- 'देखो। वे जो उदायन मुनि बैठे हैं वे ही अन्तिम राजर्षि है ।' बस, इस पर से अभयकुमार ने विचार किया कि तब तो मैं यदि राजा बनूं तो मुझे दीक्षा नहीं मिल सकती। और तब तो फिर 'राज्यश्री सो नरक श्री' क्यों कि उसमें इतने सारे आरंभ समारंभ परिग्रह और प्रपंच करने होते हैं । तुरन्त आकर पिता श्रेणिक को जो उसे राज्य सुपुर्द करने को तैयार थे - समझाया कि - 'यदि मैं राजा बनूँगा तो संसार में भटकने वाला हो जाऊँगा। क्या आप यह चाहते है कि महावीर प्रभु का भक्त मैं, महावीर प्रभु के आप जैसे भक्त का पुत्र होकर नरकादि में भटकनेवाला बनूँ ? प्रभुने कहा है कि अन्तिम राजा होकर दीक्षा लेने वाले तो उदायन हो गये । अतः अब यदि मैं राजगद्दी स्वीकार करूँ तो मुझे दीक्षा नहीं मिलनेवाली, और मेरी दुर्गति होगी । अतः कृपा कर के मुझे चारित्र की अनुमति दे दीजिए ।" क्षायिक समकित के स्वामी श्रेणिक भला इनकार करें ? अभयकुमार ने दीक्षा ग्रहण की। पिता के द्वारा राज्य सौंपे जाने की बात आने पर प्रभु के पास से यह मालूम कर के कि राज्य स्वीकार करने का क्या परिणाम होता है - यहाँ तक अभयकुमार ने यह बुद्धि जो दौडायी सो पारिणामिकी बुद्धि | राजा-मंत्री का सम्बन्धः बात यह चल रही है कि कुमार कुवलयचन्द्र से महर्षि कह रह है कि कोशाम्बी नगरी के राजा पुरंदरदत्त का महामात्य वासव औत्पातिकी आदि चार बुद्धियों का स्वामी है | ( धनी है ।) तथा निर्मल सम्यक्त्व का धारक है। राजा इस महामात्य के प्रति इतनी आस्था और आदर रखता है कि उसे देव की तरह, गुरू की तरह, पिता की तरह और मित्र की तरह मानता है। राजा के मन मंत्री यानी अपना कोई एक नौकर नहीं बल्कि ( १ ) महागुणवान, महाबुद्धि निधान सच्चरित्र और तत्त्वदृष्टिवाला होने के कारण देव गुरू की तरह उपासना करने योग्य है । (२) बड़ी उम्र का साथ ही राजा का एकान्ततः निःस्वार्थ हितैषी होने से पिता की तरह मार्ग दर्शन स्वीकार करने योग्य है । और (३) स्नेहमय एवं गंभीर होने से एक सहृदय मित्र की तरह प्रेम और विश्वास करने योग्य है । Jain Education International १४५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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