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________________ मिलेगी।" __ 'उसके बाद इस महिला से जो कहा सो यह समझ कर कि मिट्टी का घडा था,तो फूट ने से मिट्टी मिट्टी में मिल गयी । और पानी नदी का था सो बहकर नदी में मिल गया । जो जिससे अलग हुआ था वह उससे मिल गया । इस पर से लगा कि इस, माता का पुत्र इसे आ मिलना चाहिए । जो जिसमें से पैदा हुआ वह उसे पुनः मिलता है इस पर से दूसरी क्या कल्पना हो सकती है ?" यह सुनकर गुरु उस बुद्धिहीन विद्यार्थी से कहते हैं, "देखो ! इस में कुछ भी मेरा सिखाया हुआ नहीं है; इसकी बुद्धि को ही यह सूझा और ऐसा सूझने का कारण है इसका विनय । इसने पढ़ने की अपेक्षा गुरु विनय का निर्वाह करने का पहले लक्ष्य रखा है | यह कभी विनय नहीं चुका है । फलतः इसकी बुद्धि ऐसी विकस्वर हुई है कि सामने उपस्थित मुद्दे पर उचित अनुमान कर सके ।" आज के विद्यार्थी-विद्यार्थिनी : आज इस का मूल्य भुला दिया गया है । अतः शिक्षा के नाम पर, आर्टस साइन्स कॉमर्स एंजीनीयरिंग आदि आदि सिखाया जाता है, परन्तु बुनियादी गुण-विनय के विषय में विचार नहीं किया जाता । न उसकी कोई शिक्षा दी जाती है न इसका अभ्यास होता है । परिणाम देखते हो ? लडके माँ बाप से गुस्ताखी का बर्ताव करते हैं और शिक्षक प्रोफेसर किसी गिनती में नहीं । जरूरत आ पड़ने पर स्कूल - कॉलेज के खिलाफ भी विद्रोह उपद्रव तोड फोड भी करते हैं। एक कॉलेजियन विद्यार्थी हम से कह रहा था कि क्लास में एक लड़की अमेरीकन नग्न स्त्री पुरूषों की तसवीरोंवाली किताब खोल कर देख रही थी; प्रोफेसर की नजर पड़ गयी। प्रोफेसर ने उससे कहा, "तुम्हें ऐसी किताब नहीं पढ़ती चाहिए।" विद्यार्थिनी ने कहा “आपको पढाई के विषय में ही कुछ कहने का अधिकार है, अन्य बाबतों में मैं स्वतन्त्र हूँ । आप मुझे कुछ नहीं कह सकते ।" ___ कहो - है न अविनय और अनाचार की हद ? यह तो प्रोफेसर ने देखा तो प्रकट हुआ अन्यथा आप को तो पता ही नहीं है कि, आपके लड़के - लड़कियां गुप्त ढंग से कैसे बीभत्स चित्र फोटोग्राफ और किताबे मैगजीन आदि रखते हैं, देखते हैं पढ़ते हैं । तब उनसे जाग्रत कामवासना का उन्माद उनके द्वारा क्या क्या नहीं कराएगा ? वही कॉलेजियन लड़का कहता था कि आजकी कॉलेजियन विद्यार्थीनियाँ घर में कहती हैं कि 'घर सँकरा है, पढने में सुविधा नहीं लगती इस लिए लायब्ररी में पढ़ने जाती हूँ । वहाँ पुस्तके भी मिल सकती हैं ।" अब १४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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