SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसी करतूते करता हैं । सिपाहियों ! जाओ इसके आँख कान-नाक जीभ खत्म कर दो, और बीच बाजार में इसे बाँध-जकड़ कर इसके शरीर की चमड़ी उतार लो। इस पर नमक-मिर्च का पानी छिड़के और चाबुक लगाओं।" राजा ने उसे नरक जैसी भयानक सजा फरमा दी । यह सुनते ही युवक एकदम घबरा गया। अब कैसा सहन करना पडेगा - इस की कल्पना मात्र से काँप ने लगा । राजा के पैरों पड़ कर रोते गिडगिडाते माफी माँगता है, परन्तु राजा काहे का सुने ? वह तो कहता है 'हरामी! तेरी यह सजा तो लोग भी देखें और उन्हें भी पता लग जाय कि यदि हम कोई ऐसा दुराचार का काम करेंगे तो उसकी ऐसी भयानक - कठोर सजा भुगतनी पडेगी । पाप करते समय क्षणभर भी जरा सोच नहीं और अब माफी चाहिए ? सिपाहियो ! ले जाओ इसे और मेरी आज्ञानुसार इसे बराबर मारो-पीटो ।" राजा का हुक्म - फिर देर कैसी ? राजा के आदमी उसे बीच-बाजार ले गये। लोगों की भीड़ जमा हो गयी । उनकी उपस्थिति में युवक की आँखे फोड़ दी, जीभ-कान-नाक काट डाले और शरीर पर से चमडी उधेड दी | वह खूब चीखता - चिल्लाता है पर यहाँ किसे दया आती है जो रुके ? शरीर पर नमक मिर्च का पानी छिड़कते हैं, और कोडे मारते हैं। शहर में आतंक छा गया । 'परस्त्री के साथ क्रीडा करनेवाले की यह हालत बनायी जायेगी । राजा की ओर से लोगों को यह घोषणा सुना दी गयी । सोचिये, कैसी और कितनी यातना सहनी पड़ी? अभी यह तो यहाँ की, एक मनुष्य की दी हुई यातना है । लेकिन यह तो परिमित है । बाद में तो वह जीव गिरा नरक में। नरक में परमाधामी जो यातना देते हैं वह तो मनुष्य की दी हुई यातना से कई गुनी भयानक यातना है | रोम रोम में तीक्ष्ण सुइयाँ चुभाते हैं, पकौडियों की तरह तेल में तलते हैं, भुट्टे की तरह भट्टी में सेंकते है, गन्ने की तरह कोल्हू में पेरते हैं - वगैरह वगैरह कई यातनाएँ और किस सीमा तक ? सुनते भी कँपकँपी छूट जाय, तो भोगते हुए क्या क्या और कैसा लगता होगा ? यह सब किस चीज़ का फल ? दुराचरण का । दुराचार की लत लगे हुए मनुष्य को उसका परिणाम नहीं सोचना है कि कैसा परिणाम आएगा, परन्तु परिणाम उसे थोड़ा ही छोडनेवाला है । यह दुनिया एक बृहत् प्रदर्शन है जिसमें ऐसे विविध दुःखद परिणाम भोगनेवालों के दृश्य जगह जगह नजर आते हैं । ये सूचित करते हैं कि इन जीवों ने मानव भव में कईदुराचरण के खेल खेले थे । यह देखकर अपने आप के बारे में विचार आना १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy