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करने की अति आतुरता में मार्ग ढूँढ निकालता है । स्त्री का वेश धारण कर रानी के एकान्त के समय वह उसकी सखी के रुप में उसके महल में पहुँचा । रानी क्या उसे स्वीकार करेगी? यह कुछ सोचना नहीं है । कैसा अधम तथा संकटमय मार्ग?
प्रेम और वासना का आवेश सज्जनता तथा खतरे के प्रति लापरवाह बनाता है।
मानव-देह मिलने से क्या ? यदि ये अंध आवेश कायम रखते हों ? देखना हो तो इसमें नीचता और खतरा देखा जा सके ऐसी बुद्धि मिली हैं। परन्तु ऐसी बुद्धि होते हुए भी उपयोग किसे करना है ? पशु को तो बेचारे को यह नीचता और जोखिम समझने की बुद्धि ही नहीं मिली, अतः स्वभावतः उसमें खिंच जाता है; परन्तु यहाँ तो भान भूला हुआ मनुष्य बुद्धि होते हुए भी बुद्धि का दिवाला निकालता है। ऐसा बुद्धि का दिवाला निकलवानेवाले प्रेम और वासना के आवेशो का त्याग नहीं करना है, तो फिर सज्जनता भी कहाँ से रहेगी? और आगामी संकट का विचार भी कैसे आएगा ? रानी क्या कहती है ?
वह युवक स्त्री वेश में रानी के महल के नीचे दरवान से यह कहकर कि "मैं रानी की सखी हूँ" ऊपर गया, रानी के पास जा खड़ा हुआ, तो रानी ने कहा, "यह तुमने क्या किया ? यहाँ क्यों आये ?" __ युवक ने कहा, "मैं तेरे बिना नहीं जी सकता । तू यदि आने का इन्कार करेगी तो मैं आत्महत्या करूँगा । मुझ पर तू अपना प्रेम भूल गयी ?
रानी कहती है -"प्रेम तो नहीं भूली परन्तु अब परिस्थितियाँ बदल गयी हैं, तब क्या हो सकता हैं ? अब तो वर्तमान परिस्थिति में सन्तोष मानना ही रहा।" रानी एक नारी होते हुए भी उचित बात कहती है जब कि यह पुरुष पर वासना का गुलाम सो कहता है - __ 'परिस्थितीयाँ बदल गयीं परन्तु मैं इस तरह से तो यहाँ आ सकता हूँ न ?
और तू मुझे सुख दे सकती है न ? इन्कार करेगी तो मेरे लिए मृत्यु के सिवा और कोई रास्ता नहीं है ।' ऐसा कहकर रोने बैठा ।
शर्म में भयंकर अकार्य : कर्म की माफी नहीं मिलती :
उसका आत्महत्या का निर्णय सुनकर रानी घबरा गयी, विह्वल हो गयी। पूर्व का प्रेम तो था ही, प्रेम की शर्म में खिंच गयी, ना नहीं कह सकी; और युवक
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