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कुमार को आकाशवाणी :
कुमार कुवलयचन्द्र गाढ़ जंगल में किसी साथी के बिना अकेला आकाश में से नीचे छूट गया है। घोडा खत्म हो गया है । उसे कोई घबराहट नहीं है, ताज्जुब होता है कि 'यह अपूर्व अश्व कौन है ? और मुझे यहाँ क्यों ले आया ? उतने में आकाशवाणी होती हैं ।
पर
'हे कुवलयचन्द्र ! सुनो ! तुम्हें दक्षिण दिशा की ओर अभी एक कोस जाना है और पहले कभी न देखा हुआ देखना है।' इस तरह आकाश में बोली गयी यह वाणी सुनकर और अधिक आश्चर्य हुआ- 'अरे ! यह कोई मेरा नाम भी जानता है और यदि मुझे दक्षिण की ओर जाने को कहता है तो तो जरा देखूँ- दक्षिण दिशा में जाकर कि क्या देखने मिलता है ?' इस तरह सोच कर वह तो आगे चल पड़ा ।
अटवी कैसी है ?
वहाँ विंध्य पर्वत की विशाल अटवी है । यहाँ कवि प्राकृत भाषा की खूबी से एक ही शब्द के दो अर्थ हों उस रीति से उपमा के द्वारा अटवी का वर्णन करता हुआ कहता है ‘अटवी कैसी है ? - जैसे रणभूमि देख लो। क्यों कि जैसे रणभूमि में युद्ध चलता हो तब 'शर' अर्थात् बाण छूटते हैं और तलवारें चलती हों, फलतः वह भूमि उससे व्याप्त दिखाई दे वैसे ही यहाँ भी 'शर' (सरकंडे) नामक घास के सेंकडों पौधे उगे हुए हैं अतः यह भी उससे व्याप्त है । और यह अटवी मानो जिनेश्वर देवों की आज्ञा, शासन, ही देख लो ! क्यों कि जैसे यह शासन महान् व्रतों के कारण जिसतिस के द्वारा जल्दी प्रवेश न हो सके ऐसा है और 'सावयसय' सैंकडों श्रावकों द्वारा सेवित होता है, उस तरह से यह अटवी भी 'महव्वय' अर्थात बड़े समूहों द्वारा आसानी से घूमा न जा सके ऐसी है और 'सावयसय' अर्थात सेंकडों श्वापदो जंगली पशुओं द्वारा सेवित है। ऐसी अनेक उपमाओं से शोभित यह अटवी है। कुमार इस अटवी के भीतर भीतर चलता जाता है ।
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विचित्र दृश्य :
ऐसे जंगल में आगे जाकर कुमार ने एक आश्चर्य- अचम्मा देखा । विकराल - क्रुर - घातक कहे जाने वाले सिंह, बाघ - भेडिये ( वृक) आदि प्राणी वहाँ शांति से
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