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________________ ज्ञान क्यों आत्मस्वभाव ? :- ज्ञान यदि आत्मा का स्वभावभूत धर्म न हो तो फिर आत्मा का चैतन्य स्वरूप ही क्या ? कुछ नहीं, प्रथम से ही अजीव काष्ठादि जैसा ! ऐसा हो तो (i) 'ज्ञान आत्मा में ही प्रकट हो, परन्तु अजीव शरीर, इन्द्रिय आदि में नहीं, ऐसा क्यों ?' तथा (ii) इन्द्रियादि कभी कभी निष्क्रिय होते हुए भी स्मरणादि ज्ञान कैसे हो सके ? (iii) व्याख्यानादि में अद्रष्ट अश्रुतार्थ का स्फुरण कैसे व किसे होता है ? (iv) देखने वाली आँख वही होते हुए भी अभ्यास बढने के साथ जवाहरात पर झटिति पहिचान व सूक्ष्म दर्शन चिन्तन होता है यह कैसे ? अतः कहिये कि ज्ञान आत्मा का मूल स्वरूप है। सर्व आवरण हटते ही स्वच्छ आकाश के सूर्य की भाँति आत्मा पूर्ण ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित होती है। यदि मोक्ष होने पर ज्ञानवत् सभी धर्म नष्ट ही हो जाते हों तो सत्व-द्रव्यत्वादि भी नष्ट हो जाने चाहिये, और ये यदि मौजूद रहते हैं तो ज्ञान मोजूद क्यों न रहें ? ज्ञान सर्व-विषयक क्यों ? (१०) प्रश्न - ज्ञान हो, सर्वज्ञता कैसे ? उत्तर - यह सम्पूर्ण ज्ञान भी त्रिकाल के समस्त लोकालोक के भाव जानता है। अतीत यदि नष्ट है तो, उसे अतीत के रूप में देखता है और अनागत यानी भावी भावों को भावी रूप में देखता है। ज्ञान का स्वभाव ज्ञेय को जानना है, मात्र आवरण जीतना हटता है उतना ही जानता है। समस्त आवरण नष्ट होने पर समस्त ज्ञेय को जानने में कौन बाधक है ? अतीत भी अतीत के रूप में ज्ञेय है ही, अन्यथा अतीत का स्मरण भी न हो । दर्पण छोटा होते हुए भी सामने जितना आता है उसको प्रतिबिम्बित करता है, इसी प्रकार ज्ञान के लिए जितने ज्ञेय हैं, उन सब को वह जान सकता है। अन्यथा मर्यादा बांधने पर तो इतना ही जाने, अधिक नहीं इसमें 'इतना' अर्थात् कितना? उसका नियामक कौन कि अमुक संख्या के ही ज्ञेय जाने? अतः ज्ञेय मात्र जानें । इस प्रकार मुक्तात्मा सर्वज्ञ होती है, वह ज्ञानस्वरूप से प्रति समय परिवर्तित ज्ञेयों के अनुसार, परिवर्तित रहती है, अन्यथा यदि एक ही स्थिर ज्ञान हो, तो वह मिथ्या हो जाय । ____ मोक्ष में सुख कैसे ? (११) प्रश्न - खैर, मोक्ष में दुःख-साधन पापादि नहीं तो दुःख नहीं । किन्तु इसी तरह सुख के साधन पुण्य, और सुख के आधार देह-इन्द्रिय-विषय नहीं होने से सुख भी नहीं न ? उत्तर - नहीं, वहाँ सुख तो अनन्त अव्याबाध है। संसार में भी सुख का आधार देह-इन्द्रिय-विषयों नहीं, क्योंकि सुख का अनुभव देह-इन्द्रियों को नहीं किन्तु आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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