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________________ घट सकता है; परन्तु उससे रोगवेदना का जन्म या वृद्धि थोड़े ही हो सकती है ? यह तो कुपथ्य आहार की वृद्धि हो तभी होती है। (४) पुण्य घटने से छोटी और कम शुभ देह मिले यह तो ठीक है, परन्तु स्थूल और अशुभ हाथी-मत्स्य आदि की अथवा नरक की देह कैसे मिले ? अल्प सुवर्ण से छोटा ही सही, पर कलश सोने का ही बनता है, मिट्टी का नहीं । (५) इस प्रकार अकेला पाप मानने वाले को भी यह आपत्ति है कि पाप के उत्कर्ष से दुःख-वृद्धि तथा पाप के अपकर्ष से दु:ख का ह्रास हो, परन्तु सुखवृद्धि कैसे हो सकती है ? पाप अल्प भी दुःख का कारण हो सकता है, पर सुख का नहीं। विष अल्प ही मात्रा में हो तब भी वह आरोग्य वर्धक नहीं हो सकता । संमिश्र पुण्य-पाप का मत मिथ्या : (६) संमिश्र पुण्य पाप जैसा तो कोई कर्म ही नहीं है, क्योंकि ऐसे कर्म का उत्पादक कोई कारण नहीं है। कर्म के कारण रूप में शुभाशुभ मन, वचन, काय योग गिना जा सकता है, (मिथ्यात्वादि कारण को तो अशुभ योग में अंतर्भूत कह सकते हैं) परन्तु एक समय में या तो शुभ, अथवा अशुभ एक ही प्रकार का योग चलता है, और इससे तो या तो पुण्य, अथवा पाप एक का ही बन्ध होता है । दव्य योग-भाव योग : भाव योग अमिश्र ही : प्रश्न - शुभाशुभ मिश्रित योग दीखता है न ? उदाहरण के लिए अविधि से दान देने का विचार या उपदेश , या अविधि से जिन पूजा; यह अनुक्रम से शुभाशुभ मनोयोग-वाग्योग-काययोग है। उत्तर - नहीं; योग द्विविध है, - द्रव्य और भाव । इसमें योग-प्रवर्तक द्रव्य और मन-वचन-काय क्रिया, यह है द्रव्य योग, और उभय का हेतुभूत अध्यवसाय यह है भावयोग । द्रव्य योग में शुभाशुभ मिश्र भाव व्यवहार नय से होता है, परन्तु निश्चय नय से नहीं, वैसे ही भावयोग में मिश्रभाव नहीं । इसमें तो अकेला शुभ या अकेला अशुभ अध्ववसाय ही होता है । शुभाशुभ कोई अध्यवसाय नहीं होता । आगम में दो शुभ ध्यान, तीन शुभ लेश्याएँ, दो अशुभ ध्यान तथा तीन अशुभ लेश्याएँ कथित है, परन्तु मिश्र कोई ध्यान लेश्या, कथित नहीं है । (ध्यान के अन्त में लेश्या प्रवर्तित रहती है)। भावयोग लेश्या-ध्यानात्मक होता है। यह शुभाशुभ नहीं, अतः पुण्य पाप मिश्रित कोई बन्धन नहीं होता । संक्रम में मिश्रित कर्म नहीं:प्रश्न - शुभाशुभ कर्म में अशुभ-शुभ कर्म का परस्पर में संक्रम (अंतः- प्रवेश, ܀ 94 ܀ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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