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________________ साथ अनुभव नहीं, इससे अनुभव रूप कार्य के लिए कारणभूत भिन्न भिन्न पुण्य और पाप की आवश्यकता रहती है । (५) पांचवे विकल्प में वायु तिरछी बहे, अग्नि ऊंची ही जाय, कांटे वक्र-टेढ़े तिरछे हों यह जैसा उनका स्वभाव है, वैसे ही पुण्य पाप के बिना ही सुख दुःख भववैचित्र्य के स्वभाव से ही होते हैं । (१), (२), (३) तथा (५) ये चारों विकल्प गलत :इनमें चौथा विकल्प ही युक्ति-संगत है, शेष युक्ति-विरुद्ध है। यह इस प्रकार : यदि स्वभाव से ही जगत् वैचित्र्य होना कहते हो, तो स्वभाव का अर्थ क्या ? (१) वस्तु ? (२) निर्हेतुकता ? अथवा (३) वस्तुधर्म ? (इस सम्बन्ध में पूर्व में दूसरे गणधर में कहा गया है तद्नुसार ।) सारांश कारणभूत मूर्त वस्तुधर्म पुण्यपाप मानने चाहिये। दो प्रकार के अनुमान से स्वतन्त्र पुण्य व पाप की सिद्धि : कारणानुमान : 'दानादि क्रिया हिंसादि क्रिया रूप विचित्र कारणों के कार्य विचित्र होने ही चाहिये, जैसे गेहूँ और डांग के बीज के कार्य ।' तथा कार्यानुमान : 'जनक माता पिता सदृश होने पर भी दो पुत्रों में सुरूपता आदि विचित्र कार्य के पीछे विचित्र कारण होने ही चाहिये, - इन दो प्रकार के अनुमानों से पुण्य-पाप सिद्ध होते हैं ।' (३) प्रधान कारण भी कार्य के अनुरूप होता है, सोने के कलश का कारण सोना ही और तांबे के कलश का कारण तांबा ही होता है। इसी तरह सुख का कारण पुण्य कर्म, और दुःख का कारण पाप कर्म - ऐसे दो विलक्षण कार्यों के कारण भी विलक्षण मानने ही पड़े। पुण्य-पाप अरूपी क्यों नहीं : प्रश्न - ऐसे तो सुख-दुःख आत्मपरिणाम स्वरूप होने से अरूपी हैं तब इनके कारणभूत पुण्य-पाप अरूपी ठहरेंगे? उत्तर - कारण सर्वथा सर्व धर्मों से कार्यानुरूप अथवा सर्वथा कार्य से विलक्षण होते नहीं, क्योंकि तब तो पहिले में कारण कार्यरूप ही हुआ, अथवा कार्य कारणरूप ही हुआ । यदि सर्व धर्मों से अनुरूप ही कारणत्व-कार्यत्व दो भिन्न धर्म होते, फिर एक कारण और अन्य कार्य यह क्या ? एवं सर्वथा सर्व धर्मों से विलक्षण कहने में यह आपत्ति है कि एक में यदि वस्तुत्व धर्म है तो इससे सर्वथा विलक्षण अपवस्तुत्व धर्म ही अन्य में आ गिरेगा, अर्थात् वह अवस्तु ही सिद्ध होगी ! तब तो फिर वस्तुअवस्तु का कार्य-कारणभाव ही क्या ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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