SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देव का न होना इसलिए लगा कि नारकीय जीव तो परतन्त्र होने से यहाँ नहीं आ सकते, परन्तु स्वेच्छाचारी और दिव्य प्रभाव वाले माने गए देव यदि हों, तो क्यों न आएँ ? आते नहीं है यह देव का अभाव सूचित करता है। परन्तु देव सत्ता के ये प्रमाण है :(१) समवसरण में देव प्रत्यक्ष दीखते हैं। (२) ज्योतिष विमान ये स्थानरूप होने से महल की भाँति किसी का उसमें निवास होना चाहिये; यही निवासी देवताओं का एक वर्ग है। इन्हें विमान इसलिए कहते हैं कि ये रत्नमय है, और आकाश में नियतरूप से विचरण करते हैं। पवन, मेघ, अग्नि का गोला रत्नमय नहीं इसलिए किसी का निवास नहीं । प्रश्न - इसे तो माया-रचना क्यों न कहें ? उत्तर - तो भी ऐसी रचना करने वाले देव सिद्ध होंगे । मनुष्य की यह रचनासामर्थ्य नहीं । (३) जैसे उत्कृष्ट पाप का फल नारक हो कर. भोगते हैं वैसे उत्कृष्ट पुण्य फल का भोक्ता कोन ? देव ही । दुर्गन्धपूर्ण धातु से युक्त शरीर, रोग, जरा आदि विडम्बणा वाला मनुष्य उत्कृष्ट सुख-भोगी नहीं कहलाता । (४) पूर्वजन्म के स्मरण वाले के कथन से भी देव सिद्ध होते हैं, जैसे किकई देशों में भ्रमण करके आए हुए के कथन से तथाकथित देवों और उनकी वस्तुओं का परिचय होता है। (५) विद्या-मन्त्र की साधना से इष्टसिद्धि होती है वह देवप्रसाद से ही होती है, जैसे कि राजा की कृपा से इष्टसिद्धि होती है । (६) किसी व्यक्ति में कभी-कभी विचित्र बकवाद आदि विकृत चेष्टाएँ दिखाई देती है जो उसमें साधारण परिस्थिति में नहीं होती है। ऐसे असंभवित विकार किसी देव के प्रवेश से ही होते हैं, जैसे कि सीधी गति से चलता हुआ यांत्रिक वाहन जब विचित्र गति धारण करता है तब अनुमान होता है कि उसमें बेठा हुआ व्यक्ति उसमें परिवर्तन लाता है । इस प्रकार शरीर में प्रविष्ट देव असाधारण चेष्टा कराता है। (७) देव-मन्दिर में कभी चमत्कार, मनुष्य के विशिष्ट स्वप्न, व उसे विशिष्ट दर्शनादि भी देवसत्ता सिद्ध करते हैं। (८) 'देव' यह व्युत्पत्तिमत् शुद्ध पद है जो सार्थक ही होता है। अतः इससे वाच्य देव होने चाहिये । प्रश्न - वह तो बडे ऐश्वर्यवान् व्यक्ति पर घटित होता है न? कहते हैं, 'भाई! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy