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________________ क्यों हो ? जीवत्व का नाश कहां होता है ? वैसे भव्यत्व का नाश क्यों ? उत्तर - घट-प्रागभाव अनादि होते हुए भी इसका कार्य जो घट वह पैदा होते ही प्रागभाव नष्ट होता है, इसी भाँति भव्यत्व का कार्य 'मोक्ष' होने के साथ ही भव्यता का नष्ट होना युक्तिसंगत है। 'प्रागभाव तो अभाव रूप है, इसका साम्य भावात्मक भव्यत्व से कैसा हो?' - ऐसा मत कहिये; प्रागभाव भी घटानुत्पत्ति से विशिष्ट पुद्गल समूहरूप होने से कथंचित् भावात्मक है। यह उस रूप में नष्ट हो सकता है, भले अनादि हो। भव्यत्व भी मोक्षयोग्यता रूप होने से मोक्ष सिद्ध होते ही नष्ट हो जाता है। संसार रिक्त क्यों न हो ? प्रश्न - अगर भव्यों का मोक्ष हो जाता है तो संसार में से कभी सर्वथा भव्योच्छेद हो जाना चाहिये ! जैसे भंडार में से एक एक भी दाना निकालते-निकालते वह खाली हो जाता है उत्तर - नहीं, काल की भाँति भव्य-राशि अनन्त है । समय समय व्यतीत होते हुए भी काल का उच्छेद नहीं, ऐसे ही भव्य जीवों का भी नहीं, भले प्रति छ: माह में कम से कम एक तो मोक्ष गमन करे ही। प्रश्न - काल सीमित नहीं, भव्य तो सीमित है। जगत में जितने भव्य हैं, उतने ही है, नए बढ़ने के नहीं, फिर अनन्तानंत व्यतीत होने पर तो इनका अभाव हो न? उत्तर - नहीं, आज से लगाकर भावी चाहो जितना अनन्तानन्त काल लो, वह तो परिमित ही है, जब कि अतीत काल की तो आदि ही न होने से अपरिमित है। अब सोचो कि अपरिमित काल में जो रिक्त होना था वह नहीं हुआ, वह इस परिमित काल में कैसे रिक्त होगा? यह तो भविष्य में भी जब पूछा जाएगा तब यही उत्तर रहेगा कि 'एक निगोद (अनन्त जीवों के शरीर) में रही हुई जीव राशि की अपेक्षा अनन्तवें भाग की संख्या में ही जीव मोक्ष गए हैं ।' सर्वज्ञ के अन्य कथन की भाँति यह कथन भी सत्य ही मानना चाहिए । प्रश्न - मोक्ष न पाने वाले सभी अभव्य क्यों नहीं ? उत्तर - 'भव्य' का अर्थ मोक्ष पाने वाले ऐसा नहीं, किन्तु पाने की योग्यता वाले ऐसा है । अर्थात् तपसंयमादि सामग्री मिले तो प्राप्त कर सकें ऐसे जीव भव्य है। जिन्हें वे सामग्री नहीं मिली इतने मात्र से वे जीव अभव्य नहीं। जैसे प्रतिमा के योग्य काष्ठ को सामग्री न मिली तो प्रतिमा नहीं बनेगी, परन्तु इससे इसे अयोग्य नहीं गिन सकते। प्रश्न - 'मोक्ष 'उत्पन्न' हुआ तो फिर 'नष्ट' क्यों न हो ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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